खो गया हूँ शहर की रफ्तार में
आज अरसे बाद लौटा हूँ। ऐसा लग रहा है कि मैं बूढ़ा हो रहा हूँ।
लीजिये, sdc की यादों को ताज़ा करते हुए एक ग़ज़ल यहाँ छोड़ जा रहा हूँ। इधर से गुज़रा था, सोचा सलाम करता चलूँ... ग़ज़ल खो गया हूँ शहर की रफ़्तार में दिल मगर अब भी है धौलाधार* में (एक पर्वत श्रृंखला का नाम) घर चलाता हूँ मैं ख़ुद को बेचकर फन मेरा टिकता नहीं बाज़ार में अब वो नुक्कड़ भी नहीं पहचानता बैठते थे हम जहाँ बेकार में उस गली में फिर कहाँ जाना हुआ दिल जहाँ टूटा था पहले प्यार में यूं हकीकत खाब पर भारी पड़ी हम उलझ कर रह गए घर बार में। घूम आते थे हम अक़्सर मॉल पर, अब कहाँ वो बात है इतवार में मुस्कुराने में अभी कुछ देर है मैं अभी उतरा नहीं किरदार में लौट कर आया तो घर भी रो पड़ा है बहुत सीलन हर इक दीवार में यूँ न हाँ में हाँ मिलाया कर मेरी, लुत्फ़ आता है तेरे इन्कार में नकुल गैतम |
wah wah wah..
eh sher bohut pasand aya... यूं हकीकत खाब पर भारी पड़ी हम उलझ कर रह गए घर बार में। Mubarak ho keep writing.. Mujeeb Parwaaz |
शुक्रिया जनाब। ।
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Nakul bhaii
Namaste Bahot waqt baad aapki koii tehreer bazm mein dekhi.. Khushii huii... Ghazal ke baare mein main kyaa kahun.. Aik bhee sher aisaa nahi ki jo pasand na aayen..padhne waale ke seedhe dil me utarti huii hai aapki yeh ghazal... Ye sacchaii hai jo aapne bayaan kii hai.. Mujhe behad pasand aayiin aapki ye Ghazal.. Mere dil se daad o mubaaraqbaad qabul farmaayen... Khush rahen... Apnaa khayaal rakhen Duaaon ke saath ijaazat Aapka Dhaval |
शुक्रिया धवल जी ।
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