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naresh_mehra110 21st January 2010 10:40 PM

मतला, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़...ग़ज़ल : शिल्प
 
मतला, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ [ग़ज़ल : शिल्प और संरचना] - प्राण शर्मा



ग़ज़ल में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भाँति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है।


जितने गिले हैंसारे मुँह से निकाल डालो

रखो न दिल में प्यारे मुँह से निकाल डालो। - बहादुर शाह ज़फर


इस मतले में 'सारे' और ’प्यारे’ काफ़िया है और 'मुँह से निकाल डालो' रदीफ़ है। यहां यह बतलाना उचित है कि ग़ज़ल के प्रारंभिक शेर को मतला और अंतिम शेर को मकता कहते हैं। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आज-कल ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है; क्योंकि गज़ल में मकता हो या न हो, मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा। गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भाँति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को 'हुस्नेमतला' कहा जाता है। शेर का पहला मिसरा 'ऊला' और दूसरा मिसरा 'सानी' कहलाता है। दो काफ़िए वाले शेर को 'जू काफ़िया' कहते हैं।


शेर में काफिया का सही निर्वाह करने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ एक मोटे-मोटे नियम हैं जिनको जानना या समझना कवि के लिए अत्यावश्यक हैं. दो मिसरों से मतला बनता है जैसे दो पंक्तिओं से दोहा. मतला के दोनों मिसरों में एक जैसा काफिया यानि तुक का इस्तेमाल किया जाता है. मतला के पहले मिसरा में यदि "सजाता" काफिया है तो मतले के दूसरे मिसरा में "लुभाता", "जगाता" या "उठाता" काफिया इस्तेमाल होता है. ग़ज़ल के अन्य शेर "बुलाता", "हटाता", "सुनाता" आदि काफिओं पर ही चलेंगे. मतला में "आता", "जाता", "पाता", "खाता","मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये भी इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन ये बहर या छंद पर निर्भर है. निम्नलिखित बहर में की ग़ज़ल में "आता", "जाता", "मुस्कराता" आदि काफिये तो इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन "मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये नहीं.


हम कहाँ उनको याद आते हैं

भूलने वाले भूल जाते हैं


मुस्कराहट हमारी देखते हो

हम तो गम में भी मुस्कराते हैं


झूठ का क्यों न बोल बाला हो

लोग सच का गला दबाते हैं - प्राण शर्मा


उर्दू शायरी में एक छूट है वो ये कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे में "लाया" काफियों का इस्तेमाल किया जा सकता है. मसलन--


वो यूँ बाहर जाता है

गोया घर का सताया है


लेकिन एक बंदिश भी है जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे मिसरा में "जाता" काफिये प्रयुक्त हुए हैं तो पूरी ग़ज़ल में समान ध्वनियों के शाब्द -खाता ,भाता, लाता आते हैं. इस हालत में "आता" के साथ "लाया" काफिया बाँधना ग़लत है. इसके अतिरिक्त ध्वनी या स्वर भिन्नता के कारण "कहा" के साथ "वहां", "ठाठ" के साथ "गाँठ", "ज़ोर" के साथ "तौर" काफिये इस्तेमाल करना दोषपूर्ण है.


अभिव्यक्ति की अपूर्णता, अस्वाभाविकता, छंद-अनभिज्ञता और शब्दों के ग़लत वज़्नों के दोषों की भांति हिन्दी की कुछेक गज़लों के काफियों और रदीफों के अशुद्ध प्रयोग भी मिलते हैं. जैसे-


आदमी की भीड़ में तनहा खडा है आदमी

आज बंजारा बना फिरता यहाँ हैं आदमी - राधे श्याम


राधे श्याम के शेर का दूसरा मिसरा "यहाँ" अनुनासिक होने के कारण अनुपयुक्त है.


ख़ुद से रूठे हैं हम लोग

जिनकी मूठें हैं हम लोग - शेर जंग गर्ग


दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है

खो जाए तो मिटटी है मिल जाए तो सोना है -निदा फाजली


इस शेर में "खिलौना" और "सोना" में आयी "औ" और "ओ" की ध्वनी में अन्तर है.


बंद जीवन युगों में टूटा है

बाँध को टूटना था टूटा है -त्रिलोचन


अपने दिल में ही रख प्यारे तू सच का खाता

सब के सब बेशर्म यहाँ पर कोई शर्म नहीं खाता -भवानी शंकर


फ़िक्र कुछ इसकी कीजिये यारो

आदमी किस तरह जिए यारो -विद्या सागर शर्मा


उपर्युक्त तीनों शेरों में "टूटा", "खाता" और "जिए" की पुनरावृति का दोष है. एक मतला है-


जिंदगी तुझ से सिमटना मेरी मजबूरी थी

अज़ल से भी तो लिपटना मेरी मजबूरी थी -कैलाश गुरु "स्वामी"


"सिमटना" और "लिपटना" में आए "मटना" और "पटना" काफिये हैं. आगे के शेरों में भी इनकी ध्वनियों -कटना, पलटना जैसे काफिये आने चाहिए थे लेकिन कैलाश गुरु "स्वामी" के अन्य शेर में "जलना" का ग़लत इस्तेमाल किया गया है. पढिये-


ये अलग बात तू शर्मिदगी से डूब गया

मैं इक चिराग था जलना मेरी मजबूरी थी


काफ़िया तो शुरू से ही हिंदी काव्य का अंग रहा है। रदी़फ भारतेंदु युग के आस-पास प्रयोग में आने लगी थी। हिंदी के किस कवि ने इसका प्रयोग सबसे पहले किया था, इसके बारे में कहना कठिन है। वस्तुतः वह फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिंदी में आया। इसकी खूबसूरती से भारतेंदु हरिश्चंद्र, दीन दयाल जी, नाथूराम शर्मा शंकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथलीशरण गुप्त, सूयर्कान्त त्रिपाठी 'निराला', हरिवंशराय बच्चन आदि कवि इसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फलस्वरूप उन्होंने इसका प्रयोग करके हिंदी काव्य सौंदर्य में वृद्धि की। उर्दू शायरी के मिज़ाज़ को अच्छी तरह समझनेवाले हिंदी कवियों में राम नरेश त्रिपाठी का नाम उल्लेखनीय है। उर्दू की मशहूर बहर 'मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन' (सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा) में बड़ी सुंदरता से प्रयोग की गई है। उनकी 'स्वदेश गीत' और 'अन्वेषण' कविताओं में 'में' की छोटी रदी़फ की छवि दर्शनीय है-


जब तक रहे फड़कती नस एक भी बदन में

हो रक्त बूँद भर भी जब तक हमारे तन में


मैं ढूँढता तुझे था जब कुंज और वन में

तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में


तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था

मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में


यहाँ पर यह बतलाना आवश्यक है कि रदी़फ की खूबसूरती उसके चंद शब्दों में ही निहित है. शब्दों की लंबी रदी़फ काफ़िया की प्रभावोत्पादकता में बाधक तो बनती ही है, साथ ही शेर की सादगी पर बोझ हो जाती है। इसके अलावा ग़ज़ल में रदी़फ के रूप को बदलना बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई फूलदान में असली गुलाब की कली के साथ कागज़ की कली रख दे। गिरजानंद 'आकुल' का मतला है-


इतना चले हैं वो तेज़ सुध-बुध बिसार कर

आए हैं लौट-लौट के अपने ही द्वार पर


यहां 'बिसार' और 'द्वार' काफ़िए हैं उनकी रदी़फ है- 'कर'। चूँकि रदीफ बदलती नहीं है इसलिए अंतिम शेर तक 'कर' का ही रूप बना रहना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ग़ज़लकार ने काफ़िया के साथ-साथ 'कर' रदीफ को दूसरे मिसरे में 'पर' में बदल दिया है।


दुष्यंत कुमार का मतला है -


मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे

मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे


यहां 'पाने' और 'दिलाने' काफ़िए है; और उनकी रदीफ है- 'आएंगे'। ग़ज़ल के अन्य शेर में 'आएंगे' के स्थान पर 'जाएंगे' रदीफ का इस्तेमाल करना सरासर ग़लत है।

janumanu 22nd January 2010 09:56 AM

thank u so much .. naresh ji .........................................


:)

sunita thakur 22nd January 2010 08:23 PM

Thank u Naresh jii, bahut detail meiN samjaya gaya hai gazal ki bareekiyo.n ko, muje aapka yeh thread bahut accha laga, main chahti hoon ki yeh thread ko padkar mere jaise na-samaj bhi kuch seekh sakeN...main thread ko stick kar rahi hooN, taaki sabki nazar es thread par jaroor pade jo kuch seekhna chahte haiN unko easy rahe gazal ke bare meiN jaan.na

reps +++ for this valueable thread

thanks



naresh_mehra110 29th January 2010 11:00 PM

बहर : Ghazal :
Shilp Aur Sanrachna...
Satpal "Khayal"

बहर की यदि बात करें तो फ़ारसी के ये भारी भरकम शब्द जैसे फ़ाइलातुन, मसतफ़ाइलुन या तमाम बहरों के नाम आप को याद करने की ज़रूरत नही है। ये सब उबाऊ है इसे दिलचस्प बनाने की कोशिश करनी है। आप समझें कि संगीतकार जैसे गीतकार को एक धुन दे देता है कि इस पर गीत लिखो.. गीतकार उस धुन को बार-बार गुनगुनाता है और अपने शब्द उस मीटर / धुन / ताल में फिट कर देता है बस.. गीतकार को संगीत सीखने की ज़रूरत नहीं है उसे तो बस धुन को पकड़ना है। ये तमाम बहरें जिनका हमने ज़िक्र किया ये आप समझें एक किस्म की धुनें हैं। आपने देखा होगा छोटा सा बच्चा टी.वी पर गीत सुनके गुनगुनाना शुरू कर देता है वैसे ही आप भी इन बहरों की लय या ताल कॊ पकड़ें और शुरू हो जाइये। हाँ बस आपको शब्दों का वज़्न करना ज़रूर सीखना है जो आप उदाहरणों से समझ जाएंगे।

हम शब्द को उस आधार पर तोड़ेंगे जिस आधार पर हम उसका उच्चारण करते हैं। शब्द की सबसे छोटी इकाई होती है वर्ण। तो शब्दों को हम वर्णों मे तोड़ेंगे। वर्ण वह ध्वनि हैं जो किसी शब्द को बोलने में एक समय में हमारे मुँह से निकलती है और ध्वनियाँ केवल दो ही तरह की होती हैं या तो लघु (छोटी) या दीर्घ (बड़ी)। अब हम कुछ शब्दों को तोड़कर देखते हैं और समझते हैं, जैसे:


"आकाश"

ये तीन वर्णो से मिलकर बना है.


आ+ का+ श

अब छोटी और बड़ी आवाज़ों के आधार पर या आप कहें कि गुरु और लघु के आधार पर हम इन्हें चिह्नित कर लेंगे. गुरु के लिए "2 " और लघु के लिए " 1" का इस्तेमाल करेंगे.


जैसे:

सि+ता+रों के आ+गे ज+हाँ औ+र भी हैं.

(1+2+2 1+ 2+2 1+2+2 1+ 2+2)

अब हम इस एक-दो के समूहों को अगर ऐसे लिखें.

122 122 122 122


तो अब आगे चलते हैं बहरो की तरफ़. उससे पहले कुछ परिभाषाएँ देख लें जो आगे इस्तेमाल होंगी।


तकतीअ:

वो विधि जिस के द्वारा हम किसी मिसरे या शे'र को अरकानों के तराज़ू मे तौलते हैं, ये विधि तकतीअ कहलाती है। तकतीअ से पता चलता है कि शे'र किस बहर में है या ये बहर से खारिज़ है। सबसे पहले हम बहर का नाम लिख देते हैं।, फिर वो सालिम है या मुज़ाहिफ़ है. मसम्मन ( आठ अरकान ) की है इत्यादि.


अरकान और ज़िहाफ़:

अरकानों के बारे में तो हम जान गए हैं कि आठ अरकान जो बनाये गए जो आगे चलकर बहरों का आधार बने. ये इन आठ अरकानों में कोशिश की गई की तमाम आवाज़ों के संभावित नमूनों को लिया जाए.ज़िहाफ़ इन अरकानों के ही टूटे हुए रूप को कहते हैं जैसे:फ़ाइलातुन(२१२२) से फ़ाइलुन(२१२).


मसम्मन और मुसद्द्स:

लंबाई के लिहाज़ से बहरें दो तरह की होती हैं मसम्मन और मुसद्द्स. जिस बहर के एक मिसरे में चार और शे'र में आठ अरकान हों उसे मसम्मन बहर कहा जाता है और जिनमें एक मिसरे मे तीन शे'र में छ: उन बहरों को मुसद्द्स कहा जाता है. जैसे:

सितारों के आगे जहाँ और भी हैं

(122 122 122 122)

अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं.

(122 122 122 122)

यह आठ अरकान वाली बहर है तो यह मसम्मन बहर है.


मफ़रिद या मफ़रद और मुरक्कब बहरें:

जिस बहर में एक ही रुक्न इस्तेमाल होता है वो मफ़रद और जिनमे दो या अधिक अरकान इस्तेमाल होते हैं वो मुरक्कब कहलातीं हैं जैसे:

सितारों के अगे यहाँ और भी हैं

(122 122 122 122)

ये मफ़रद बहर है क्योंकि सिर्फ फ़ऊलुन ४ बार इस्तेमाल हुआ है.


अगर दो अरकान रिपीट हों तो उस बहर को बहरे-शिकस्ता कहते हैं जैसे:

फ़ाइलातुन फ़ऊलुन फ़ाइलातुन फ़ऊलुन


अब अगर मैं बहर को परिभाषित करूँ तो आप कह सकते हैं कि बहर एक मीटर है, एक लय है, एक ताल है जो अरकानों या उनके ज़िहाफ़ों के साथ एक निश्चित तरक़ीब से बनती है. असंख्य बहरें बन सकती है एक समूह से.


जैसे एक समूह है:

122 122 122 122

इसके कई रूप हो सकते हैं जैसे:


122 122 122 12

122 122 122 1

122 122

122 122 1


सबसे पहली बहार है:


बहरे-मुतका़रिब:


1.मुत़कारिब (122x4) मसम्मन सालिम

(चार फ़ऊलुन )


*सितारों के आगे जहाँ और भी हैं

अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं.



*कोई पास आया सवेरे-सवेरे

मुझे आज़माया सवेरे-सवेरे.


ये दोनों शे'र बहरे-मुतकारिब में हैं और ये बहुत मक़बूल बहर है. बहर का सालिम शक्ल में इस्तेमाल हुआ है यानि जिस शक्ल में बहर के अरकान थे उसी शक्ल मे इस्तेमाल हुए.ये मसम्मन बहर है इसमे आठ अरकान हैं एक शे'र में.तो हम इसे लिखेंगे: बहरे-मुतका़रिब मफ़रद मसम्मन सालिम.अगर बहर के अरकान सालिम या शु्द्ध शक्ल में इस्तेमाल होते हैं तो बहर सालिम होगी अगर वो असल शक्ल में इस्तेमाल न होकर अपनी मुज़ाहिफ शक्ल में इस्तेमाल हों तो बहर को मुज़ाहिफ़ कह देते हैं.सालिम मतलब जिस बहर में आठ में से कोई एक बेसिक अरकान इस्तेमाल हुआ हो. हमने पिछले लेख मे आठ बेसिक अरकान का ज़िक्र किया था जो सारी बहरों का आधार है.मुज़ाहिफ़ मतलब अरकान की बिगड़ी हुई शक्ल.जैसे फ़ाइलातुन सालिम शक्ल है और फ़ाइलुन मुज़ाहिफ़. सालिम शक्ल से मुज़ाहिफ़ शक्ल बनाने के लिए भी एक तरकीब है जिसे ज़िहाफ़ कहते हैं.तो हर बहर या तो सालिम रूप में इस्तेमाल होगी या मुज़ाहिफ़ मे, कई बहरें सालिम और मुज़ाहिफ़ दोनों रूप मे इस्तेमाल होती हैं. अरकानों से ज़िहाफ़ बनाने की तरकीब बाद में बयान करेंगे.हम हर बहर के मुज़ाहिफ़ और सालिम रूप की उदाहरणों का उनके गुरु लघू तरकीब से, अरकानों के नाम देकर समझेंगे जो मैं समझता हूँ कि आसान होगा, नहीं तो ये खेल पेचीदा हो जाएगा.


बहरे-मुतका़रिब मुज़ाहफ़ शक्लें:


1.

फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ (फ़ऊ या फ़+अल)

122 122 122 12

गया दौरे-सरमायादारी गया

तमाशा दिखा कर मदारी गया.(इक़बाल)



दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया

हमें आप से भी जुदा कर चले.(मीर)

(ये महज़ूफ ज़िहाफ़ का नाम है)


2:

फ़ऊल फ़ालुन x 4

121 22 x4

(सौलह रुक्नी)


ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराये नैना बनाये बतियाँ

कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ न लेहु काहे लगाये छतियाँ



हज़ार राहें जो मुड़के देखीं कहीं से कोई सदा न आई.

बड़ी वफ़ा से निभाई तूने हमारी थोड़ी सी बेवफ़ाई.


3:

फ़ऊल फ़ालुन x 2

121 22 x 2

वो ख़त के पुरज़े उड़ा रहा था.

हवाओं का रुख दिखा रहा था.


4:

फ़ालुन फ़ऊलुन x2

22 122 x2


नै मुहरा बाक़ी नै मुहरा बाज़ी

जीता है रूमी हारा है काज़ी (इकबाल)


5:

फ़ाइ फ़ऊलुन

21 122 x 2


सोलह रुक्नी

21 122 x4


6:

22 22 22 22

चार फ़ेलुन या आठ रुक्नी.


इस बहर में एक छूट है इसे आप इस रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

211 2 11 211 22

दूसरा, चौथा और छटा गुरु लघु से बदला जा सकता है.


एक मुहव्ब्त लाख खताएँ

वजह-ए-सितम कुछ हो तो बताएँ.



अपना ही दुखड़ा रोते हो

किस पर अहसान जताते हो.(ख्याल)


7:

(सोलह रुक्नी)

22 22 22 22 22 22 22 2(11)

यहाँ पर हर गुरु की जग़ह दो लघु आ सकते हैं सिवाए आठवें गुरु के.


* दूर है मंज़िल राहें मुशकिल आलम है तनहाई का

आज मुझे अहसास हुआ है अपनी शिकस्ता पाई का.(शकील)



* एक था गुल और एक थी बुलबुल दोनों चमन में रहते थे

है ये कहानी बिल्कुल सच्ची मेरे नाना कहते थे.(आनंद बख्शी)



* पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है.(मीर)

और..

एक ये प्रकार है

22 22 22 22 22 22 22

इसमे हर गुरु की जग़ह दो लघु इस्तेमाल हो सकते हैं.


8:

फ़ालुन फ़ालुन फ़ालुन फ़े.

22 22 22 2


अब इसमे छूट भी है इस को इस रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैं

211 211 222


* मज़हब क्या है इस दिल में

इक मस्जिद है शिवाला है



अब मुद्दे की बात करते हैं आप समझ लें कि मैं संगीतकार हूँ और आप गीतकार या ग़ज़लकार तो मैं आपको एक धुन देता हूँ जो बहरे-मुतकारिब मे है. आप उस पर ग़ज़ल कहने की कोशिश करें. इस बहर को याद रखने के लिए आप चाहे इसे :


फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

(122 122 122 122)

या

छमाछम छमाछम छमाछम छमाछम


या

तपोवन तपोवन तपोवन तपोवन


कुछ भी कह लें महत्वपूर्ण है इसका वज़्न, बस...


1.बहरे- मुत़कारिब

(122x4)

(चार फ़ऊलुन )


एक बहुत ही मशहूर गीत है जो इस बहर मे है वो है.


अ+के+ले अ+के+ले क+हाँ जा र+हे हो

(1+2+2 1+2+2 1+2+2 1+2+2)

मु+झे सा+थ ले लो ज+हाँ जा र+हे हो

(1+2+2 1+ 2+2 1+2+ 2 1+2+2)


अब आप कोशिश कर सकते हैं. इसे गुनगुनाएँ और ग़ज़ल कहने की कोशिश करें।

***********

naresh_mehra110 29th January 2010 11:49 PM

उर्दू की एक बहर है-

मफ ऊ लु फा इ ला त म फा ई ल फा इ लुन
2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2


इस बहर में उर्दू के हजारों ही ग़ज़लें कही गयी हैं। कुछ मिसरे प्रस्तुत हैं-
आए बहार बन के लुभा कर चले गए - राजेंद्र कृष्ण
जाना था हम से दूर बहाने बना लिए - राजेंद्र कृष्ण
मिलती है जिंदगी में मुहब्बत कभी-कभी - साहिर लुधिआनवी
हम बेखुदी में तुम को पुकारे चले गए
- मजरूह सुलतानपुरी

इस बहर से मिलती-जुलती एक बहर है-

मफ ऊ ल म फा ई ल म फा ई ल फ ऊ लुन
2 2 1 1 2 2 1 1 2 2 1 1 2 2


इस बहर में भी सैकडों ग़ज़लें उर्दू में कही गयी हैं। जैसे –

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गजरा हूँ खरीद दार नहीं हूँ -अकबर इलाहाबादी

बदनाम न हो जाए मुहब्बत का फसाना
ओ दर्द भरे आंसुओं आंखो में न आना
-राजा मेहंदी अली खान

कई हिन्दी गज़लकारों ने भी इन दोनों बहरों में ग़ज़लें कही हैं। अनभिज्ञता के कारण कुछ ने इन बहरों का घालमेल कर दिया है। मसलन-

अफ़सोस किया पहले-पहल वार उसीने
आया था जो हमदर्द हमारे बचाव को
-ओमकार गुलशन

पहला मिसरा २२१ १२ २१ १२ २१ १२२ जो की सही वज़न में है। दूसरा मिसरा सही नहीं है। "बचाव को" ने गड़बड़ कर दिया है।
एक शेर है-

जिस नाम के हमनाम हों उस नाम के लिए
हिस्से में कभी देश निकाले भी पड़ेंगे
- शलभ श्री राम सिंह

यह शेर भी पहले शेर के दोष के समान खारिज है। शेर के दोनों मिसरों के अन्तिम शब्दों "के लिए" और "पड़ेंगे" के वज़न में तालमेल नहीं है। "के लिए" में २१२ मात्राएँ हैं और "पड़ेंगे"में १२२
-----------------------------------------

मफ ऊ ल म फा ई ल म फा ई ल फ ऊ लुन
2 2 1 1 2 2 1 1 2 2 1 1 2 2


इस बहर में गोबिंद मिश्र की ग़ज़ल का मतला देखिये -

ठहरा है जहाँ वक़्त वो माजी की घड़ी है
फैंको इसे दरिया में ये बंद पडी है


पहला मिसरा वज़न में है लेकिन दूसरा मिसरा "दरिया" के कारण बेवज़न हो गया है। शब्द "दरिया" के स्थान पर "दयार" शब्द के वज़न का कोई शब्द आता तो वज़न सही होता। गोबिंद मिश्र की ग़ज़ल के अधिकाँश शेर बेवज़्न हैं।
-----------------------------------------------

मफ ऊ ल फा इ ला त म फा ई ल फा इ लुन
2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2


इस बहर में लक्ष्मी शंकर वाजपेयी का शेर है-

एक रोज़ फिर उडेगा कि मर जायेगा घुट कर
इतना कठिन सवाल परिंदे को क्या पता


इस शेर का दूसरा मिसरा वज़न में हैं लेकिन पहला मिसरा "घुट कर" के कारण वज़न में नहीं। "घुट कर" को अगर "घटक" ही पढा जाए तो मिसरा वज़न में हैं।
--------------------------------------------------------------

एक बहर है- १२१ २१ १२२ १ २ १२ २२
इस बहर में लक्ष्मी शंकर वाजपेयी का शेर है-

अजीब शौक है जो क़त्ल से भी बदतर है
तुम किताबों में दबा कर न तितलिआं लिखना


"तुम किताबों" की वज़ह से मिसरे का वज़न सही नहीं बैठता है।
----------------------------------------------------

एक बहर है- २१ २ २१ २ २२१ १२ २२२
इस बहर में साहिर लुधिआनवी के बोल हैं-

रंग और रूप की बारात किसे पेश करूँ

इस बहर में गोपाल दस नीरज के भी बोल हैं-

इसी उम्मीद में कर ली है आज बंद जबान
कल को शायद मेरी आवाज़ जहाँ तक पहुंचे


"आज "शब्द ने पहले मिसरे का वज़न ही गडबडा दिया है। "आज" को उलटा कर "जआ"
के रूप में पढ़ें तो मिसरा सही वज़न में है।
----------------------------------------------------------

एक बहर है-
फा इ ला तुन मु फा इ लुन फै लुन
2 1 2 2 1 2 1 2 2 2


फ़िर वो भूली सी याद आयी है - शैलेन्द्र

इस वज़न में राम कुमार कृषक का शेर भी देखिये-

हमने इस तौर मुखौटे देखे
अपना चेहरा उतार कर देखो


पहला मिसरा शब्द "मुखौटे" के कारन वज़न में नहीं रहा है।
--------------------------------------------------------



एक और बहर देखिये-
म फा ई लुन म फा ई लुन फ ऊ लुन
1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2


इस बहर में संजय मासूम का शेर है-
असर अब भी है मुझ पर राम जी का
कोई नारा नया मत दो मुझे


दूसरे मिसरे के अन्तिम शब्द "मुझे"के बाद दो मात्राओं की कमी है।
केवल मात्राएँ गिन लेने से शेर में वज़न नहीं आता है। रविन्द्र भ्रमर का शेर है --

चिडिया सोने की है लेकिन अलस्सुबह बोलेगी क्या
उसका पिंजरा तो देखो पूरा मुर्दा घर लगता है


यह हिन्दी का मात्रिक छंद "ताटंक" है। इस छंद के नियमानुसार प्रत्येक पंक्ति के दो टुकड़े होते हैं। पहले टुकड़े में १६ और दूसरे टूकडे में १४ मात्राएँ होती हैं. इस छंद को पहचानने का सरल तरीका है। १६ मात्राओं के बाद आपने आप यति आ जाती है। यति का अर्थ है विराम। जैसे -"चिडिया सोने की है लेकिन"। लेकिन पर विराम आ गया है। ज़बान थोड़ी देर के रुकती है। भ्रमर की पहली पंक्ति तो छंद में है लेकिन दूसरी नहीं हैं क्योंकि दूसरी पंक्ति के पहले टुकड़े में १४ मात्राएँ हैं और दूसरे टुकड़े में १६ मात्राएँ।


हस्ती मल हस्ती के निम्नलिखित शेर में भी यही दोष है-

आसानी से पहुँच न पाओगे इंसानी फितरत तक
कमरे में होता है कमरा कमरे में तहखाना भी


पहले मिसरे के पहले टुकड़े में १८ मात्राएँ हैं और दूसरे टुकड़े में १२ मात्राएँ। दूसरे मिसरा सही है।
पढिये, आप स्वयं अन्तर महसूस करेंगे।

मिसरों में मात्राओं का सही प्रयोग

जैसे दो मिसरों के मेल से शेर बनता है वैसे ही उर्दू और हिन्दी के कुछ छंद ऐसे हैं जिनमें नियमानुसार मिसरे के दो टुकड़े होते हैं। कोई भले ही इस नियम का पालन नहीं करे लेकिन उसके इस्तेमाल से शेर में निखार आ जाता है। मिसरे का संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि उसके पहले टुकड़े का का अंतिम शब्द यानि पर, का, की, के, को, भी, ही, है आदि मिसरे के दूसरे टुकड़े में नहीं जाने पाये। जैसे-

हम बुलबुले हैं इसकी
ये गुलिस्ताँ हमारा


लाली मेरे लाल की
जित देखू तित लाल


"की"शब्द उपयुक्त टुकड़े में आने से मिसरे की गेयता में सुगमता पैदा हो गयी है। बालस्वरूप राही की ग़ज़ल के दो मिसरे हैं-

उसकी सोचो जो जंगल को
ही अपना घरबार कहें

सीधे -सच्चे लोगों के दम
पर ही दुनिया चलती है


पहले मिसरे के दूसरे टुकड़े में "ही" शब्द है। इसको मिसरे के पहले टुकड़े में आना चाहिए। इसी तरह दूसरे मिसरे के दूसरे टुकड़े में "पर ही" शब्द हैं। इनको भी मिसरे के पहले टुकड़े में आना चाहिए। दोनों मिसरे लय -सुर में होते और छंद में सौन्दर्य उत्पन्न करते, यदि वे इस तरह लिखे जाते--



उसकी सोचो जंगल को ही
जो अपना घरबार कहें

सच्चे लोगों के दम पर ही
सारी दुनिया चलती है


मंगल नसीम का शेर है ---

पैसा हो तो यूँ फैंकेगे जैसे इनका दुश्मन हो
फिर झोली फैलाये फिरते हैं ऐसे खर्चीले लोग


शेर यूँ होता तो बेहतर लगता-

पैसा हो तो यूँ फैंकेगे जैसे इनका दुश्मन हो
झोली फैलाए फिरते हैं फ़िर ऐसे खर्चीले लोग


चूँकि ग़ज़ल का सम्बन्ध राग-रागनियों से है, इसलिए शेर के किसी मिसरे में किसी मात्रा घट या बढ़ जाने के बारे में एक कुशल गज़लकार सदा ही सजग व सतर्क रहता है, फ़िर भी उसके घटने -बढ़ने के दोष मिल ही जाते हैं, कभी गज़लकार की असावधानी और कभी ग़ज़ल-गायक की नासमझी से। साठ के दशक में हबीब वाली ने बहादुर शाह ज़फर की ग़ज़ल "लगता नहीं है दिल मेरा उजडे दयार में" गाई थी। इस ग़ज़ल का एक मिसरा है -"कह दो ये हसरतों से कहीं और जा बसें"। लेकिन उनहोंने गाया-"कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें"। "ये"शब्द की जगह "इन" शब्द को गाने से मिसरे का वज़न बढ़ गया है। मिसरा सही होता अगर इसको इस तरह भी गाया जाता-

कह दो न हसरतों से कहीं और जा बसें
या
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
--------------------------


नए छन्दों की रचना

बीस-पच्चीस साल पहले दिल्ली में एक ग़ज़ल संग्रह छपा था। उसको देखने का अवसर मुझे मिला था। ग़ज़लकार का नाम मैं भूल गया हूँ। उन्होंने नए छंद रचे थे। किसी शेर का एक मिसरा २४ मात्राओं का था और दूसरा मिसरा ३२ मात्राओं का। मात्राओं में भिन्नता होने के कारण ग़ज़लें अपनी प्रभावोत्पादकता में असमथर् रहीं। मनोभावों के अनुरूप नए छंद भी रचे जा सकते हैं बशर्ते वे रचनाओं में सौंदर्य उत्पन्न करने में सक्षम हों।

नये छंदों की सृष्टि कुशल कवि की रचनात्मकता का परिचायक है। पहले ही कहा जा चुका है कि ऐसा रचनात्मक परिचय ’निराला’ ने अपनी अनेक रचनाओं में दिया है। “परिमल का निवेदन” शीर्षक कविता की पंक्ति “एक दिन थम जायेगा रोदन तुम्हारे प्रेम-अंचल में” उनके ऐसे ही प्रयास का फल था। यह छंद हिंदी के २८ मात्राओं के विधाता-छंद तथा उर्दू की बहर मफ़ाइलुन, मफ़ाइलुन, मफ़ाइलुन, मफ़ाइलुन (उठाए कुछ वरक लाले ने कुछ नरिगस ने कुछ गुल ने) के साम्य पर बनाया गया है; किन्तु पहले शब्द 'एक' के 'ए' में दो मात्राएं अलग से जोड़ देने से छंद की गंभीरता बढ़ गई है। (रामधारी सिंह 'दिनकर') इस छंद में स्वर्गीय शंभुनाथ 'शेष' ने साठ के दशक में कोमलकांत शब्दावली में सुंदर ग़ज़ल लिखी थी। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि वह एक अच्छे ग़ज़लकार थे। उनका नाम हम हिंदी ग़ज़लकारों की चर्चा में अक्सर भूल जाते हैं। ग़ज़ल से उनका आत्मीय संबंध था। उनका ज़िक्र न करना हिंदी ग़ज़ल के साथ बेइंसाफ़ी है। ग़ज़ल के प्रति वह समर्पित थे। उन्होंने अनेक ग़ज़लें लिखी थीं। उनके असामयिक निधन से ग़ज़ल को काफ़ी क्षति हुई। उर्दू का रंग उनको छू नहीं पाया था, हालाँकि वह उर्दू से हिंदी में आए थे। उनकी हर ग़ज़ल हिंदी का संस्कार लिए हुए है। भावों के अनुरूप उनकी ग़ज़ल का रस लीजिए-



चाँदनी है चाँद के संसार की बातें करें।
शुभ्र लहरी, शांत पारावार की बातें करें।

रो चुके हैं हम जगत-व्यवहार का रोना बहुत
कर सकें तो प्रेम की और प्यार की बातें करें।

कल्पना सी बह रही रश्मियों की निर्झरी
भावनाओं के मधुर अभिसार की बातें करें।

अप्सरा सी है थिरकती स्वप्न की सुकुमारता
आज भावलोक के विस्तार की बातें करें।

'शेष' मधुबन, वल्लरी, यमुना, कदम मधु बाँसुरी
प्राण, आओ अब इन्हीं दो चार की बातें करें।

यदि कवियों की नई पीढ़ी नए भावों और नए विचारों के अनुरूप नए छंद रचे तो ग़ज़ल विधा को चार चाँद लग सकते है लेकिन देखा जाता है कि नई पीढ़ी के अधिकांश कवि पुरानी बहरों, पुराने छंदों पर ही आश्रित हैं।

अच्छी ग़ज़ल का जन्म तभी होता है जब भावों के नए आयामों को स्थापित करने वाले ग़ज़लकार को छंदों के साथ-साथ सही उच्चारण व वज़न का सही-सही ज्ञान हो। एक समृद्ध उन्नत व परिष्कृत भाषा के शब्दों का अशुद्ध उच्चारण करना या उनको ग़लत वज़न में लिखना उनके सौंदर्य को बिगाड़ना है। यह धारणा कि शब्द को तोड़ना मरोड़ना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है, निर्मूल है। 'यह माना कि कभी-कभी किसी भाषा का शब्द दूसरी भाषा में जा कर अपना रूप बदल लेता है लेकिन उसको जबरन तोड़-मरोड़ कर शायरी में इस्तेमाल करना उससे खिलवाड़ करना है। यह खिलवाड़ दिखाई देता है उर्दू ग़ज़ल में भी और हिंदी ग़ज़ल में भी।

उस्ताद शायर बेकल ’उत्साही’ ने ठीक ही कहा है - 'उर्दूवाले न हिंदी व्याकरण जानते हैं न ही हिंदी वाले उर्दू कवायद। दोनों बेचारे उच्चारण या तलफ़्फ़ुस से ही वाकिफ़ नहीं हैं।' अब देखिए न उर्दू शायरी में हिंदी के शब्द ब्राह्मण, शांति, क्रांति, प्रीत, प्रेम, पत्र, कृष्ण आदि को बरहमन, शानती, करानती, परीत, परेम, पत्तर, करीशन के रूप में लिखा जाता है। उसमें हिंदी के कई शब्दों के विकृत रूप मिलते ही हैं, उर्दू के भी कुछ एक शब्द जिनको तोड़ा-मरोड़ा जाता है। शब्द हैं- आईना, सियाह, ख़ामोशी आदि। इनको आइना, सियह, ख़ामुशी या ख़ामशी के वज़नों में भी इस्तेमाल किया जाता है। 'बरसात' के काफ़िए के संग 'साथ' का काफ़िया स्वीकार्य है जबकि 'त' और 'थ' दो भिन्न ध्वनियां है। अंग्रेज़ी शब्द 'स्टेशन' को 'इस्टेशन' लिखना आम बात है। पढ़िए निदा फाज़ली का शेर -

जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बच्चों के इस्कूल में शायद तुमसे मिली नहीं है दुनिया


दलील दी जाती है कि उर्दू ग़ज़ल में कुछ शब्दों के तोड़ने-मरोड़ने के नियम हैं। नियम कुछ भी हों लेकिन मेरे विचार में शब्दों को बदलना उपयुक्त नहीं है। चूँकि अच्छा शायर शब्द की खूबसूरती को बरकरार रखता है इसलिए सवाल पैदा होता है कि इसके सही रूप व वज़न को बदला ही क्यों जाए? गद्य में उसका रूप-वजन सुरिक्षत है तो फिर पद्य में क्यों नहीं? खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग पकड़ता है। हिंदी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल के इस प्रभाव को अपनाए बिना नहीं रह सकी है। सच तो यह है कि वह दो कदम आगे ही है। उसमें हृदय, उदय, लहर, उमड़, तड़प, सड़क, नज़र, सफ़र, महक, निकल, चलन, सदन, कदम, मधुर, चमक आदि शब्दों के ग़लत उच्चारण व वज़न देखकर हैरानी होती है। हृदय और उदय के सही उच्चारण हैं- हृ दय और उ दय। इनके वज़न दया शब्द के वज़न के समान है। इनको याद शब्द के वज़न में लिखना ठीक नहीं है। शब्दों को गलत वज़नों में लिखने की इस प्रवृति को हिंदी के निम्नलिखित शेरों में देखा जा सकता है।

पलते हैं फिर भी शहर में खूँखार जानवर
माना शहर की रोशनी जंगल नहीं कुँअर
– कुँअर बेचैन

'शहर' शब्द 'याद' शब्द के वज़न में आता हैं। शेर को ज़रा ध्यान से पढ़ने पर ही भास हो जाता है कि पहले मिसरे में 'शहर' शब्द 'याद' शब्द के वज़न में और दूसरे में 'दया' शब्द के वज़न में लिखा गया है। दोनों मिसरों में 'शहर' शब्द के वज़न में भिन्नता है।

आदमी में ज़हर भी है और अमृत भी मगर
इन दिनों विषदंत उभरे हैं ज़हर हावी हुआ
- चंद्रसेन विराट

ज़हर का वज़न है- 'याद'। पहले मिसरे में इसका वज़न सही है लेकिन दूसरे मिसरे में गलत क्योंकि इसमें इसका वज़न 'दया' शब्द के वज़न के समान है।

'उमड़ना' और 'घुमड़ना' शब्द 'जागना' वज़न में आते हैं। इनको 'जगाना' शब्द के वज़न में लिखना अनुचित है। रामदरश मिश्र के निम्नलिखित दो मिसरों में 'उमड़ते' शब्द तो सही वज़न में हैं लेकिन घुमड़ते शब्द का वज़न 'जागना' शब्द के वज़न में हो जाने के कारण गलत है-

आँसू उमड़ते तो हैं बहाता नहीं हूँ मैं
घुमड़ते ही रहें बादल सावनी आकाश में


अजब, सफ़र और नज़र शब्दों के वजन 'दया' शब्द के वज़न के बराबर है। निम्नलिखित शेरों में इनके दो भिन्न रूप वज़न देखिएः-

अजब मुसाफिर हूँ मेरा सफ़र अजब
मेरी मंज़िल और है मेरा रास्ता और
- राजेश रेडडी

पहले मिसरे में 'सफ़र' शब्द के साथ प्रयुक्त 'अजब' शब्द सही वज़न में है लेकिन 'मुसा़फिर' शब्द के साथ प्रयुक्त 'अजब' शब्द 'याद' शब्द के वज़न में होने के कारण सही वज़न में नहीं है। 'सफ़र' शब्द का वज़न भी गलत है क्योंकि वह 'याद' शब्द के वज़न में है।

किश्तों में सब स़फर किए है किश्तों में आराम
दूर गई, बैठी फिर चल दी थोड़ा रुक कर धूल - हरजीत

राह में आके मैंने सोचा तो
जाने कितने स़फर निकल आए
- हरजीत

दोनों शेरों में 'स़फर' शब्द के वज़न में भिन्नता है

सहमी हुई ऩजर लगता है
बिल्कुल मेरा घर लगता है - विज्ञान वर्त

कुछ भी ऩजर नहीं आता
आइना पत्थर लगता है
- विज्ञान वर्त

पहले शेर में 'नज़र' शब्द 'दया' के वज़न में पढ़ा जाता है और दूसरे शेर में 'याद' शब्द के वज़न में।

'अगर', 'ग़ज़ल' और 'समय' शब्दों के वज़न 'दया' शब्द के समान है। निम्नलिखित मिसरों में इन शब्दों के वज़न सही इसलिए नहीं क्योंकि ये 'याद' शब्द के वज़न में है। पढ़िए-

अगर किसी पर बुरा वक़्त पड़ता सूरज - सूरजभानु गुप्त

यह ग़जल मेरे भीतर अब नाचने लगी है
- उदभ्रांत

चाहे जितना रोले कोई समय कौन लौटाए भाई
- सुमन सरीन

'अगर', 'ग़ज़ल' और 'समय' शब्दों के वज़न सही लिखें जा सकतें थे यदि ग़ज़लकार थोड़ा परिश्रम करते। 'समय' शब्द को ही लीजिए। 'कौन समय लौटाए भाई' लिखा जाता तो 'समय' शब्द का वज़न सही होता।

'ज़हन' शब्द 'याद' शब्द के वज़न में है। उसको दया शब्द के वज़न में लिखना सरासर अनुपयुक्त है। 'दया' शब्द के वज़न में आने वाले 'बदन' शब्द को भी 'याद' शब्द के वज़न में लिखना ग़लत है। निम्नलिखित अशआर 'ज़हन' 'बदन' और ' 'कुँअर' शब्द क्रमशः 'दया' और 'याद' शब्दों में आने से बेवज़न हो गए:-

काम चाहे ज़हन से चलता है
नाम दीवानग़ी से चलता है -बालस्वरूप 'राही'

आते ही तेरे ओठों पे बजती है अपने आप
फूलों से बदन वाली वो पत्थर की बाँसुरी - कुँअर बेचैन

मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे 'कुँअर' रूठ कर जाने का शुक्रिया
- कुँअर बेचैन

'कुँअर' शब्द का सही वज़न यूँ लिखने से होता -

'मुझसे 'कुँअर' यूँ रूठ के जाने का शुक्रिया'

शब्द के सही वज़न व सही उच्चारण से संबद्ध एक उस्ताद शायर ने अपने मंज चुके शागिर्द से प्रश्न किया- 'हम कदम-कदम चलते है राहें निहार कर' और 'कदम-कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाए जा' में कदम लफ़्ज़ का सही वज़न किस मिसरे में है? पहले मिसरे में या दूसरे मिसरे में? शागिर्द को दोनों मिसरों में प्रयुक्त 'कदम' लफ़्ज़ के वज़न का अंतर समझने में देर नहीं लगी। वह झट बोला, दूसरे मिसरे में।'

'वो कैसे?' उस्ताद ने फिर पूछा।

'क्योंकि 'कदम' लफ़्ज़ का सही वज़न है क दम यानि कि 'वफ़ा' लफ़्ज़ के वज़न के बराबर।'

'पहले मिसरे में 'कदम' लफ़्ज़ के वज़न में क्या गलती नज़र आई तुम्हें?

यहाँ 'कदम' दोनों बार ही कद म यानि की 'याद' लफ़्ज़ के वज़न में इस्तेमाल हुआ है।'

उत्तर सुन कर उस्ताद के मुखमंडल पर जैसे चांदनी छिटक उठी। शागिर्द को गले से लगाकर वह गर्व से बोले, 'वाह उस्ताद की लाज रखी है तुमने। तुम्हारा अल्फ़ाज़ का इल्म अब वाकई लाजवाब है। आगे तुम्हें इसलाह लेने की ज़रूरत नहीं है। तुम लफ़्ज़ की खूबसूरती को अपनी शायरी में ढालोगे, ये मुझे यकीन हो गया है।' उस्ताद का आशीर्वाद पाकर शागिर्द खुशी से फूला नहीं समाया।
****************************

sunita thakur 30th January 2010 09:41 AM

Thanku so much naresh ji..........................keep it up :)

Dhaval 30th January 2010 10:52 AM

Naresh bhaa'ii:

namaste!

aapke ees Thread se hum sab ko bahot kuch seeKhane ko mile.ngaa! maiN aapka be-had ShuKraGuzaar huuN!

duaaoN ke saath ijaazat

aapka

~ Dhaval

Kavita Negi 1st May 2010 03:00 PM

Thanks a lot Naresh ji.................... :)

parveen komal 28th July 2010 12:57 PM

Ustaad naresh bhai, Jis bareeki se apne gazal likhne ki vidha se parichit karwaya hai Bahut hi kabil e tareef hai , SDC ke sabhi shayar apki is sewa se parsann ho ke aapko dua denge aisa mera yakeen hai, Aur jab kuchh apke paas dene ke lie ho to jarooratmando'n ko de dena bahut achhi baat hai, Ilam baantne se badhta hi hai.
shukria hazoor aapka.............Diamond daad kabool farmaie

masoodhassas 6th November 2010 03:05 PM

Quote:

Originally Posted by naresh_mehra110 (Post 382047)
मतला, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ [ग़ज़ल : शिल्प और संरचना] - प्राण शर्मा



ग़ज़ल में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भाँति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है।


जितने गिले हैंसारे मुँह से निकाल डालो

रखो न दिल में प्यारे मुँह से निकाल डालो। - बहादुर शाह ज़फर


इस मतले में 'सारे' और ’प्यारे’ काफ़िया है और 'मुँह से निकाल डालो' रदीफ़ है। यहां यह बतलाना उचित है कि ग़ज़ल के प्रारंभिक शेर को मतला और अंतिम शेर को मकता कहते हैं। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आज-कल ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है; क्योंकि गज़ल में मकता हो या न हो, मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा। गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भाँति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को 'हुस्नेमतला' कहा जाता है। शेर का पहला मिसरा 'ऊला' और दूसरा मिसरा 'सानी' कहलाता है। दो काफ़िए वाले शेर को 'जू काफ़िया' कहते हैं।


शेर में काफिया का सही निर्वाह करने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ एक मोटे-मोटे नियम हैं जिनको जानना या समझना कवि के लिए अत्यावश्यक हैं. दो मिसरों से मतला बनता है जैसे दो पंक्तिओं से दोहा. मतला के दोनों मिसरों में एक जैसा काफिया यानि तुक का इस्तेमाल किया जाता है. मतला के पहले मिसरा में यदि "सजाता" काफिया है तो मतले के दूसरे मिसरा में "लुभाता", "जगाता" या "उठाता" काफिया इस्तेमाल होता है. ग़ज़ल के अन्य शेर "बुलाता", "हटाता", "सुनाता" आदि काफिओं पर ही चलेंगे. मतला में "आता", "जाता", "पाता", "खाता","मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये भी इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन ये बहर या छंद पर निर्भर है. निम्नलिखित बहर में की ग़ज़ल में "आता", "जाता", "मुस्कराता" आदि काफिये तो इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन "मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये नहीं.


हम कहाँ उनको याद आते हैं

भूलने वाले भूल जाते हैं


मुस्कराहट हमारी देखते हो

हम तो गम में भी मुस्कराते हैं


झूठ का क्यों न बोल बाला हो

लोग सच का गला दबाते हैं - प्राण शर्मा


उर्दू शायरी में एक छूट है वो ये कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे में "लाया" काफियों का इस्तेमाल किया जा सकता है. मसलन--


वो यूँ बाहर जाता है

गोया घर का सताया है


लेकिन एक बंदिश भी है जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे मिसरा में "जाता" काफिये प्रयुक्त हुए हैं तो पूरी ग़ज़ल में समान ध्वनियों के शाब्द -खाता ,भाता, लाता आते हैं. इस हालत में "आता" के साथ "लाया" काफिया बाँधना ग़लत है. इसके अतिरिक्त ध्वनी या स्वर भिन्नता के कारण "कहा" के साथ "वहां", "ठाठ" के साथ "गाँठ", "ज़ोर" के साथ "तौर" काफिये इस्तेमाल करना दोषपूर्ण है.


अभिव्यक्ति की अपूर्णता, अस्वाभाविकता, छंद-अनभिज्ञता और शब्दों के ग़लत वज़्नों के दोषों की भांति हिन्दी की कुछेक गज़लों के काफियों और रदीफों के अशुद्ध प्रयोग भी मिलते हैं. जैसे-


आदमी की भीड़ में तनहा खडा है आदमी

आज बंजारा बना फिरता यहाँ हैं आदमी - राधे श्याम


राधे श्याम के शेर का दूसरा मिसरा "यहाँ" अनुनासिक होने के कारण अनुपयुक्त है.


ख़ुद से रूठे हैं हम लोग

जिनकी मूठें हैं हम लोग - शेर जंग गर्ग


दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है

खो जाए तो मिटटी है मिल जाए तो सोना है -निदा फाजली


इस शेर में "खिलौना" और "सोना" में आयी "औ" और "ओ" की ध्वनी में अन्तर है.


बंद जीवन युगों में टूटा है

बाँध को टूटना था टूटा है -त्रिलोचन


अपने दिल में ही रख प्यारे तू सच का खाता

सब के सब बेशर्म यहाँ पर कोई शर्म नहीं खाता -भवानी शंकर


फ़िक्र कुछ इसकी कीजिये यारो

आदमी किस तरह जिए यारो -विद्या सागर शर्मा


उपर्युक्त तीनों शेरों में "टूटा", "खाता" और "जिए" की पुनरावृति का दोष है. एक मतला है-


जिंदगी तुझ से सिमटना मेरी मजबूरी थी

अज़ल से भी तो लिपटना मेरी मजबूरी थी -कैलाश गुरु "स्वामी"


"सिमटना" और "लिपटना" में आए "मटना" और "पटना" काफिये हैं. आगे के शेरों में भी इनकी ध्वनियों -कटना, पलटना जैसे काफिये आने चाहिए थे लेकिन कैलाश गुरु "स्वामी" के अन्य शेर में "जलना" का ग़लत इस्तेमाल किया गया है. पढिये-


ये अलग बात तू शर्मिदगी से डूब गया

मैं इक चिराग था जलना मेरी मजबूरी थी


काफ़िया तो शुरू से ही हिंदी काव्य का अंग रहा है। रदी़फ भारतेंदु युग के आस-पास प्रयोग में आने लगी थी। हिंदी के किस कवि ने इसका प्रयोग सबसे पहले किया था, इसके बारे में कहना कठिन है। वस्तुतः वह फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिंदी में आया। इसकी खूबसूरती से भारतेंदु हरिश्चंद्र, दीन दयाल जी, नाथूराम शर्मा शंकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथलीशरण गुप्त, सूयर्कान्त त्रिपाठी 'निराला', हरिवंशराय बच्चन आदि कवि इसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फलस्वरूप उन्होंने इसका प्रयोग करके हिंदी काव्य सौंदर्य में वृद्धि की। उर्दू शायरी के मिज़ाज़ को अच्छी तरह समझनेवाले हिंदी कवियों में राम नरेश त्रिपाठी का नाम उल्लेखनीय है। उर्दू की मशहूर बहर 'मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन' (सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा) में बड़ी सुंदरता से प्रयोग की गई है। उनकी 'स्वदेश गीत' और 'अन्वेषण' कविताओं में 'में' की छोटी रदी़फ की छवि दर्शनीय है-


जब तक रहे फड़कती नस एक भी बदन में

हो रक्त बूँद भर भी जब तक हमारे तन में


मैं ढूँढता तुझे था जब कुंज और वन में

तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में


तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था

मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में


यहाँ पर यह बतलाना आवश्यक है कि रदी़फ की खूबसूरती उसके चंद शब्दों में ही निहित है. शब्दों की लंबी रदी़फ काफ़िया की प्रभावोत्पादकता में बाधक तो बनती ही है, साथ ही शेर की सादगी पर बोझ हो जाती है। इसके अलावा ग़ज़ल में रदी़फ के रूप को बदलना बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई फूलदान में असली गुलाब की कली के साथ कागज़ की कली रख दे। गिरजानंद 'आकुल' का मतला है-


इतना चले हैं वो तेज़ सुध-बुध बिसार कर

आए हैं लौट-लौट के अपने ही द्वार पर


यहां 'बिसार' और 'द्वार' काफ़िए हैं उनकी रदी़फ है- 'कर'। चूँकि रदीफ बदलती नहीं है इसलिए अंतिम शेर तक 'कर' का ही रूप बना रहना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ग़ज़लकार ने काफ़िया के साथ-साथ 'कर' रदीफ को दूसरे मिसरे में 'पर' में बदल दिया है।


दुष्यंत कुमार का मतला है -


मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे

मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे


यहां 'पाने' और 'दिलाने' काफ़िए है; और उनकी रदीफ है- 'आएंगे'। ग़ज़ल के अन्य शेर में 'आएंगे' के स्थान पर 'जाएंगे' रदीफ का इस्तेमाल करना सरासर ग़लत है।


adaab
naresh saahab
aise log bahot hi kam nazar aate hain jinhe ek school madarsah yaa maktab ka naam diyaa ja sake
main aap ki is peshkash ko taakheer se dekhne ki maazarat ke saath itnaa kahnaa chaahungaa ki wallah aap ne haq adaa kar diyaa
masood hassaas

naresh_mehra110 23rd November 2010 08:57 PM

Aap DostoN ki jaankaari ke liye ... bataanaa zaroori samajhtaa hoon ... iss valueable thread ke likhe aalekh ki creation meri nahi hai ... jinhoNe isse likha hai ...Unke naam aalekh ke shirshakh ke saath likhe hue hai ... Praan sharmaa Ji aur Satpal " Khayal" Ji ... !

Mujhe inke likhe aalekh ki upyogiitaa SDC parivaar ke liye mahtavpoorN lagi ... isliye ... iss thread ko yaha banaanaa aavashaq samjha ... taaki naye aane waale members aur hum sab isskaa laabh uthaa sake ... Ghazal kaise kahi .. likhi jaati hai ...

aur isski takniik ki baariikiiyoN ko acche se samajh ke apni shayri ke lekhan ko behtar banaa sake .... yahi mera khaas maqsadh thaa ... isse yahaaN prastut karne ka ... !

aap sab dostoN ka Thanks ... Praan Sharma Ji aur Satpal "Khayal" tak pahuch raha hai ... jinhone itni mehnat se humari shayri ko behtar banaane ke liye yeh mahtvpoorN aalekh likhe ...

Main shukriya adaa kartaa hoon ... Praan Sahab aur Khayal Sahab !

Deepanshu 30th November 2010 04:56 PM

ਬੁੱਕਾ ਵਿੱਚ ਨੀ ਪਾਣੀ ਖੱੜਦਾ ਜਦੋ ਬਦਲ ਮੀਂਹ ਵਰਸਾਓਦੇ ਨੇ ਆਕਸਰ ਭੁੱਲ ਜਾਦੇਂ ਨੇ 'ਓਹ' ਜੋ ਬਾਹੁਤਾ ਪਿਆਰ ਜਤਾਓਦੇ ਨੇ

samyasar1 26th December 2010 01:47 AM

Quote:

Originally Posted by naresh_mehra110 (Post 416078)
Aap DostoN ki jaankaari ke liye ... bataanaa zaroori samajhtaa hoon ... iss valueable thread ke likhe aalekh ki creation meri nahi hai ... jinhoNe isse likha hai ...Unke naam aalekh ke shirshakh ke saath likhe hue hai ... Praan sharmaa Ji aur Satpal " Khayal" Ji ... !

Mujhe inke likhe aalekh ki upyogiitaa SDC parivaar ke liye mahtavpoorN lagi ... isliye ... iss thread ko yaha banaanaa aavashaq samjha ... taaki naye aane waale members aur hum sab isskaa laabh uthaa sake ... Ghazal kaise kahi .. likhi jaati hai ...

aur isski takniik ki baariikiiyoN ko acche se samajh ke apni shayri ke lekhan ko behtar banaa sake .... yahi mera khaas maqsadh thaa ... isse yahaaN prastut karne ka ... !

aap sab dostoN ka Thanks ... Praan Sharma Ji aur Satpal "Khayal" tak pahuch raha hai ... jinhone itni mehnat se humari shayri ko behtar banaane ke liye yeh mahtvpoorN aalekh likhe ...

Main shukriya adaa kartaa hoon ... Praan Sahab aur Khayal Sahab !

"mere sath kabhi karishma nahi hota
mai subha uth ke bhi zinda nahi hota "
kya yeh sahi hai ya fir yeh galat hai kyunki karishma or zinda inki taseer alag hai

shab_seher 19th February 2012 07:15 AM

Sir shukria bahut hi asaan alfazon mai samjhaya hai.. shukria fir se..

@ahna@ 15th December 2012 10:48 AM

ab tak mujhe ye sab bahot hi pechida aur mushkil lagta tha....aapne ise utn hi aasaan bana diya hai naresh saheb.. bahot bahot shukriya is beshkimti thread ka

masti 5th June 2014 09:19 PM

Tahe dil se shukriya..

-Masti


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