दास्तां._मोहंमद अली’वफा’ -
10th July 2007, 04:11 AM
दास्तां._मोहंमद अली’वफा’
कया कहुं में यार की हिकमत की दास्तां.
अल्फाज में बन जायेगी झ्हमत की दास्तां.
बनझर जमींमें छा गई कांटोकी कई बहार्
किसने उठाली हाय ए किस्मत की दास्तां.
किस्से पुराने हो गये गर याद है ताजा
छेर न ए बिजली तु अब वहशत की दास्तां.
भूल जाना भी अजीब एक खेल बन गया
लोग कहतें है एसे फितरत की दास्तां.
माजी की दीवार से ये कौन आ टपका
बहते हुए खुं मे लीये हसरत की दास्तां.
अब ‘वफा’ कैसे कुरेदें कोई भी लम्हा
हर लम्हे मे मदफन हे ईज्जत की दास्तां
_मोहंमद अली’वफा’(9जुलाई007)
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