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एक तरही ग़ज़ल
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NakulG
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एक तरही ग़ज़ल - 8th February 2017, 03:38 PM

कमी सी खल रही थी शायरों की
लो बस्ती आ गयी है आशिकों की

हवेली थी यहीं कुछ साल पहले
जुड़ी छत कह रही है इन घरों की

मेहरबां है वो मुझपर आज कितना
महक सी आ रही है साज़िशों की

हुआ था मुझसे भी ये जुर्मे उल्फ़त
मुझे आदत है ऐसे हादिसों की

बिना बरसे ही खेतों से गुज़रना
"बहुत मजबूरियाँ हैं बादलों की"

बढ़ेगी फ़स्ल की कीमत किसी दिन
लगाम अब खींच भी लो खाहिशों की

चले हैं जंग लड़ने दोपहर में
ज़रा हिम्मत तो देखो जुगनुओं की

मेरा भी वक़्त अब आता ही होगा
'नकुल' बस देर है अच्छे दिनों की
   
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