खूने रवां देखा
शीद्द्ते प्यास बढ़ाने को ए सहरा देखा.
नीकलता पहाडसे डुबोने हमे दरिया देखा..
लज्जते मयकशी का शौक तो थाभी कहां.
जो गये मयकदेमें तो शोर एक़ बपा देखा.
मिलाया हाथ है अब रफीकों ,रकीबोने,
रंग अदुव्वतका महेरबानोमें जवां देखा.
मगसल में भी तु, मकतलमें तु ही रहा
न जाने दोस्त मेने तुझे कहां कहां देखा.
बुझ गया आग का लावा ईन आंखोंसे वफा.
फीर भी जल्ती हुई नब्ज पे खूने रवां देखा.
_मोहम्मदअली वफा
3rdApril2008
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