23rd December 2015, 02:26 PM
.. बरसों के बावरोले कुछ इस तरह उठे कि मेरी यह काया कई बार बुझती रही पर एक कोई लकीर थी जो माथे में जलती रही... वह माँस की दरगाह जैसी और एक दर्द था-- दरगाह के दिये की तरह और एक याद-सी-- अज़ल के पीर का धागा... और वही धागा-- टूटती काया से प्राणों को बांधता रहा और एक सपना था जो शीरनी बांटता रहा जाने यह किस जन्म की गाथा मैं बेमुराद मरी थी और इस दरगाह पर-- मेहन्दी का पेड बनी मैं उगी हुई थी... एक बात थी-- जो कई जन्म चलती रही और मेहन्दी का पत्ता तोड कर एक सुर्ख रंग था हाथों पर लगाती रही... तू--मेरे माथे की लकीर जैसा और मैं--एक भूली हुई याद जैसी... बस, यही गाथा थी मैं सारी उम्र लिखती रही
-अमृता प्रीतम
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.....Sunita Thakur.....
यह कह कर मेरा दुश्मन मुझे हँसते हुए छोड़ गया
....के तेरे अपने ही बहुत हैं तुझे रुलाने के लिए...
Last edited by sunita thakur; 8th January 2016 at 03:39 PM..
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