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Originally Posted by Chaand
जीवन की आपा-धापी के चलते
समय शायद कहीँ सो सा गया है,
इस नोन-तेल की झंझट के चलते
एक कवि कहीं गुम सा गया है।
किस से मिलें किस से न मिलें
बस उधेड़ बुन सी लगी रहती है,
बनते बिगड़ते से इन रिश्तों में
अपनापन कहीं खो सा गया है।
कहीं हिन्दू तो कहीं मुसलमान
बस धर्म और जात नज़र आती है,
नफरतों के इस खेल में मेल
बेमेल ओर बेनामी सा गया है।
में अक्सर जगाता रहता हूँ
औरों की अंतरात्मा को,
पर अपने मन की खबर नही
जो शायद मैला से हो गया है।
नीति राजनीति सब गरमाने लगी है
सर्द मौसम की कमी सताने लगी है,
जमीं-आसमान की दूरी का शायद
अंतर कुछ कम-कम सा हो गया है।
- चाँद
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Umdaa chand bhai behad khoobsurat yunhi likhte rahiye