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Originally Posted by Madhu 14
है जुस्तजू कि खूब से है ख़ूबतर कहाँ
अब ठैरती है देखिये जाकर नज़र कहाँ
या रब इस इख़्तलात का अंजाम हो बख़ैर
था उसको हमसे रब्त मगर इस क़दर कहाँ
हम जिसपे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझसे लाख सही , तू मगर कहाँ
होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क ए इश्क़ की
दिल चाहता न हो तो ज़ुबां में असर कहाँ
इक उम्र चाहिए कि गवारा हो नीश ए उम्र
रखी है आज लज़्ज़त ए ज़ख़्म ए जिगर कहाँ
' हाली ' निशात ए नग़्मा ओ मय ढूँढते हो अब
आए हो वक़्त सुबह रहे रात भर कहाँ
"हाली" साहेब
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bahut khoob sharing Madhu..keep it up