कल शीशे की सुराही में
मैने ख्यालो की शराब भरी थी
ख्याल बड़े सुर्ख थे
दोस्तों ने जाम पीये थे
और उन लफ्ज़ो के टोस्ट दिये थे
जो छाती मे नही उगते है
वे कौन-से पेड़ों पै उगते है
और होंटों के गमलो में
किस तरह आते है,
यह सोचने का वक़्त न था
या इस तरह कहूँ की
सोचने में ख़ौफ़ लगता था
यह लफ्ज़ो का जशन था
भुलावों की वर्षगांठ
मै थी,रात थी,ख्यालो की शराब थी
और बहुत दोस्त
दोस्त जो कुछ बुलाने पर आये थे,
कुछ बिन बुलाये।
सिर्फ एक कोई 'वह्' था
जो बहुत बार बुलाने पर भी
नही आया था
-अमृता प्रीतम