8th January 2016, 03:32 PM
दीवानगी का आलम साँई! जिन पहडियों की ओट में एक छिपी-सी नदी बह्ती है मैं रोज नदी पर जाकर-- जो पानी दरगाह के लिए लाती थी उस दिन भी वही पानी था, और रोज की तरह मैने तेरा कमंडल भरा था, और तेरे आसन के पास रख दिया... वह कौन-सा काल था, यह तो मैं नहीं जानती पर जानती हूँ--जब रात उतरने लगी थी मुझे बहुत प्यास लगी और तेरे कमंडल से मैने, कुछ पानी पी लिया वही जो तेरे आसन के पास रखा था-- लगा--कुछ आंचल में भर लिया है और मैने आग का एक घूंट पिया है रात बहुत ठण्डी थी-- पर रगों में कुछ बहुत गर्म बहने लगा मैं बाहर खुले में चलती रही और जैसे ही सूर्य उदय होने को था मैं नदी पर गई... नदी की छाती में एक ज्वार-सा आया वह मुझे देखकर--- एक घडी-भर बहने लगी फिर ज्वार को बदन में सम्भालती आहिस्ता-से कहने लगी- "यह बात मुझसे न पूछो कमंडल से पूछ्ना और वह कमंडल जो भी कहेगा मुझे भी बताना..." साँई! फिर तेरी दरगाह पर जब अकेली हुई मैं कांपती-सी कमंडल के पास गई कमंडल हँस दिया, कहने लगा-- "पगली! कुछ बातें ऐसॆ भी होती हैं जो किसी से नहीं पूछ्ते जो आग तूने पी है वह साँई की अमानत है -- उसे अन्तर में सम्भाल ले..." मैं नहीं जानती साँई! यह कौन-से काल की गाथा बस इतना जानती हूँ कि जो भी हुआ था-- तेरी दरगाह पर हुआ था... और इतना जानती... कुछ ऐसा भी होता है जो काल-मुक्त होता है... और देख! कई मौतों से गुजरकर मेरी देह के भीतर आग का वह घूंट जीता है...
-अमृता प्रीतम
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.....Sunita Thakur.....
यह कह कर मेरा दुश्मन मुझे हँसते हुए छोड़ गया
....के तेरे अपने ही बहुत हैं तुझे रुलाने के लिए...
Last edited by sunita thakur; 8th January 2016 at 03:37 PM..
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