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sunita thakur
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23rd December 2015, 02:35 PM

यह कैसी कशमकश है जिंदगी में
किसी को ढूढते हैं हम किसी में !


अमृता और इमरोज़ के ख़त पढ़ते वक्त यह देखा कि सिर्फ़ प्यार ही उनके इश्क की जुबान नही थी | कुछ ख़त उनके शिकवे शिकायत भी थे ,पर वह भी जैसे किसी रूहानी दुनिया का एक ख्वाब सा जगाते हुए ...|
इमरोज़ लिखते हैं कि ..यह १९६१ के शुरू के ख़त हैं ,जिन पर न कोई तारीख है ,न कोई दस्तखत ,उन्ही दिनों अमृता ने एक कहानी लिखकर मुझे भेजी थी ,"" रौशनी का हवाका '' इस में उसका एक ख़त था फ़िर वह एक कविता लिख भेजी थी सालमुबारक .यह भी उसका एक ख़त थी और फ़िर एक नावल भेजा आइनेरेंड का' फाउन्टेन हेड ',यह भी मैंने उसकाएक ख़त समझकर पढ़ा था |यह ख़त जिन पर अमृता ने न तारीख लिखी है न अपना नाम ..उसने यह ख़त अपने गुस्से की शिखर दोपहरी में लिखे हैं --शायद प्यार में ही नही गुस्से में भी न वक्त याद रहता है न नाम ...

आप ख़ुद ही पढ़े ..

तुम्हारे और मेरे नसीबों में बहुत फर्क है ,तुम वह खुशनसीब इंसान हो ,जिसे तुमने मोहब्बत kii ,उसने तुम्हारे एक इशारे पर सारी दुनिया वार दी , पर मैं वह बदनसीब इंसान हूँ ,जिसे मैंने मोहब्बत की ,उसने मेरे लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया ...दुख ने अब मेरे दिल की उम्र बहुत बड़ी कर दी ;; अब मेरा दिल उम्मीद के किसी खिलोने के साथ खेल नही सकता है |

हर तीसरे दिन पंजाब के किसी न किसी अखबार में मेरे बम्बई बिताये दिनों का जिक्र होता है बुरे से बुरे शब्दों में , पर मुझे उनसे कोई शिकायत नही है क्यूंकि उनकी समझ मुझे समझ सकने के काबिल नही हैं केवल दर्द इस बात का है कि मुझे उसने भी नही समझा .जिसने कभी मुझसे कहा था --"" मुझे जवाब बना लो सारे का सारा |''

मुझे अगर किसी ने समझा है तो वह है तुम्हारी मेज की दराज में पड़ी हुई रंगों की शीशियाँ .जिनके बदन में रोज़ साफ़ करती और दुलारती थी | वह रंग मेरी आंखों में देखकर मुस्कराते थे ,क्यूंकि उन्होंने मेरी आँखों कि नजर का भेद पा लिया था | उन्होंने समझ लिया था कि मुझे तुम्हारी क्रियटिव पावर से ऐसी ही मोहब्बत है ,वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श के लिए तरसते रहे थे और मेरी आँखे उन रंगों से उभरने वाली तस्वीरों के लिए | वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श इस लिए माँगते थे क्यूंकि ""दे वांटेड टू जस्टिफाई देयर एगिजेंट्स "'| मैंने तुम्हारा साथ इसलिए चाहा था कि तुम्हारी कृतियों में मुझे अपने अस्तित्व के अर्थ भी मिलते थे |यह अर्थ मुझे अपनी कृतियों में भी मिलते थे ,पर तुम्हारे साथ मिल कर यह अर्थ बहुत तगडे हो जाते थे | तुम एक दिन अपनी मेज पर काम करने लगे थे कि तुमने हाथ में ब्रश पकड़ा और पास रखी रंग की शीशी को खोला मेरे माथे ने न जाने तुमसे क्या कहा ,तुमने हाथ में लिए हुए ब्रश में थोड़ा सा रंग लगा कर मेरे माथे को छुआ दिया .... न जाने वह मेरे माथे की कैसी खुदगर्ज मांग थी ,आज मुझे उसको सजा मिल रही है ,आदम ने जैसे गेहूं का दाना खा लिया हो या सेब खा लिया था, तो उसको बहिश्त से निकाल दिया गया था ....




~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


.....Sunita Thakur.....

यह कह कर मेरा दुश्मन मुझे हँसते हुए छोड़ गया
....के तेरे अपने ही बहुत हैं तुझे रुलाने के लिए...



Last edited by sunita thakur; 8th January 2016 at 03:39 PM..
   
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