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प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
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वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता(शरीर)हूँ' ऐसा मानता है।
समष्टि शक्ति ( प्रकृति) से शरीर,नदी आदि बढ़ते घटते हैं उसी तरह प्रकृति से ही मनुष्य की देखना चलना खाना पीना आदि क्रियाएँ होती हैं परन्तु मनुष्य अज्ञानवश स्वयं को उनका करता मान लेता है।
प्रकृति से उत्पन्न गुणों सत्व,रज,तम का कार्य होने से बुध्ही अहंकार मन पंचमहाभूत,दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियुं के पांच विषय(शब्द,रूप,रस,गंध,रसना) ये भी प्रकृति के गुण कहे जाते हैं।
इस पद में भगवान् स्पष्ट करते हैं की संपूर्ण क्रियाएँ प्रकृति के गुणों द्वारा की जाती हैं, स्वरुप(आत्मा) द्वारा नहीं।