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Anshumali
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मतला, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़...ग़ज़ल : शिल्प -
21st January 2010, 10:40 PM
मतला, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ [ग़ज़ल : शिल्प और संरचना] - प्राण शर्मा
ग़ज़ल में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भाँति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है।
जितने गिले हैंसारे मुँह से निकाल डालो
रखो न दिल में प्यारे मुँह से निकाल डालो। - बहादुर शाह ज़फर
इस मतले में 'सारे' और ’प्यारे’ काफ़िया है और 'मुँह से निकाल डालो' रदीफ़ है। यहां यह बतलाना उचित है कि ग़ज़ल के प्रारंभिक शेर को मतला और अंतिम शेर को मकता कहते हैं। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आज-कल ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है; क्योंकि गज़ल में मकता हो या न हो, मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा। गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भाँति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को 'हुस्नेमतला' कहा जाता है। शेर का पहला मिसरा 'ऊला' और दूसरा मिसरा 'सानी' कहलाता है। दो काफ़िए वाले शेर को 'जू काफ़िया' कहते हैं।
शेर में काफिया का सही निर्वाह करने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ एक मोटे-मोटे नियम हैं जिनको जानना या समझना कवि के लिए अत्यावश्यक हैं. दो मिसरों से मतला बनता है जैसे दो पंक्तिओं से दोहा. मतला के दोनों मिसरों में एक जैसा काफिया यानि तुक का इस्तेमाल किया जाता है. मतला के पहले मिसरा में यदि "सजाता" काफिया है तो मतले के दूसरे मिसरा में "लुभाता", "जगाता" या "उठाता" काफिया इस्तेमाल होता है. ग़ज़ल के अन्य शेर "बुलाता", "हटाता", "सुनाता" आदि काफिओं पर ही चलेंगे. मतला में "आता", "जाता", "पाता", "खाता","मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये भी इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन ये बहर या छंद पर निर्भर है. निम्नलिखित बहर में की ग़ज़ल में "आता", "जाता", "मुस्कराता" आदि काफिये तो इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन "मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये नहीं.
हम कहाँ उनको याद आते हैं
भूलने वाले भूल जाते हैं
मुस्कराहट हमारी देखते हो
हम तो गम में भी मुस्कराते हैं
झूठ का क्यों न बोल बाला हो
लोग सच का गला दबाते हैं - प्राण शर्मा
उर्दू शायरी में एक छूट है वो ये कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे में "लाया" काफियों का इस्तेमाल किया जा सकता है. मसलन--
वो यूँ बाहर जाता है
गोया घर का सताया है
लेकिन एक बंदिश भी है जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे मिसरा में "जाता" काफिये प्रयुक्त हुए हैं तो पूरी ग़ज़ल में समान ध्वनियों के शाब्द -खाता ,भाता, लाता आते हैं. इस हालत में "आता" के साथ "लाया" काफिया बाँधना ग़लत है. इसके अतिरिक्त ध्वनी या स्वर भिन्नता के कारण "कहा" के साथ "वहां", "ठाठ" के साथ "गाँठ", "ज़ोर" के साथ "तौर" काफिये इस्तेमाल करना दोषपूर्ण है.
अभिव्यक्ति की अपूर्णता, अस्वाभाविकता, छंद-अनभिज्ञता और शब्दों के ग़लत वज़्नों के दोषों की भांति हिन्दी की कुछेक गज़लों के काफियों और रदीफों के अशुद्ध प्रयोग भी मिलते हैं. जैसे-
आदमी की भीड़ में तनहा खडा है आदमी
आज बंजारा बना फिरता यहाँ हैं आदमी - राधे श्याम
राधे श्याम के शेर का दूसरा मिसरा "यहाँ" अनुनासिक होने के कारण अनुपयुक्त है.
ख़ुद से रूठे हैं हम लोग
जिनकी मूठें हैं हम लोग - शेर जंग गर्ग
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
खो जाए तो मिटटी है मिल जाए तो सोना है -निदा फाजली
इस शेर में "खिलौना" और "सोना" में आयी "औ" और "ओ" की ध्वनी में अन्तर है.
बंद जीवन युगों में टूटा है
बाँध को टूटना था टूटा है -त्रिलोचन
अपने दिल में ही रख प्यारे तू सच का खाता
सब के सब बेशर्म यहाँ पर कोई शर्म नहीं खाता -भवानी शंकर
फ़िक्र कुछ इसकी कीजिये यारो
आदमी किस तरह जिए यारो -विद्या सागर शर्मा
उपर्युक्त तीनों शेरों में "टूटा", "खाता" और "जिए" की पुनरावृति का दोष है. एक मतला है-
जिंदगी तुझ से सिमटना मेरी मजबूरी थी
अज़ल से भी तो लिपटना मेरी मजबूरी थी -कैलाश गुरु "स्वामी"
"सिमटना" और "लिपटना" में आए "मटना" और "पटना" काफिये हैं. आगे के शेरों में भी इनकी ध्वनियों -कटना, पलटना जैसे काफिये आने चाहिए थे लेकिन कैलाश गुरु "स्वामी" के अन्य शेर में "जलना" का ग़लत इस्तेमाल किया गया है. पढिये-
ये अलग बात तू शर्मिदगी से डूब गया
मैं इक चिराग था जलना मेरी मजबूरी थी
काफ़िया तो शुरू से ही हिंदी काव्य का अंग रहा है। रदी़फ भारतेंदु युग के आस-पास प्रयोग में आने लगी थी। हिंदी के किस कवि ने इसका प्रयोग सबसे पहले किया था, इसके बारे में कहना कठिन है। वस्तुतः वह फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिंदी में आया। इसकी खूबसूरती से भारतेंदु हरिश्चंद्र, दीन दयाल जी, नाथूराम शर्मा शंकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथलीशरण गुप्त, सूयर्कान्त त्रिपाठी 'निराला', हरिवंशराय बच्चन आदि कवि इसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फलस्वरूप उन्होंने इसका प्रयोग करके हिंदी काव्य सौंदर्य में वृद्धि की। उर्दू शायरी के मिज़ाज़ को अच्छी तरह समझनेवाले हिंदी कवियों में राम नरेश त्रिपाठी का नाम उल्लेखनीय है। उर्दू की मशहूर बहर 'मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन' (सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा) में बड़ी सुंदरता से प्रयोग की गई है। उनकी 'स्वदेश गीत' और 'अन्वेषण' कविताओं में 'में' की छोटी रदी़फ की छवि दर्शनीय है-
जब तक रहे फड़कती नस एक भी बदन में
हो रक्त बूँद भर भी जब तक हमारे तन में
मैं ढूँढता तुझे था जब कुंज और वन में
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में
तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में
यहाँ पर यह बतलाना आवश्यक है कि रदी़फ की खूबसूरती उसके चंद शब्दों में ही निहित है. शब्दों की लंबी रदी़फ काफ़िया की प्रभावोत्पादकता में बाधक तो बनती ही है, साथ ही शेर की सादगी पर बोझ हो जाती है। इसके अलावा ग़ज़ल में रदी़फ के रूप को बदलना बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई फूलदान में असली गुलाब की कली के साथ कागज़ की कली रख दे। गिरजानंद 'आकुल' का मतला है-
इतना चले हैं वो तेज़ सुध-बुध बिसार कर
आए हैं लौट-लौट के अपने ही द्वार पर
यहां 'बिसार' और 'द्वार' काफ़िए हैं उनकी रदी़फ है- 'कर'। चूँकि रदीफ बदलती नहीं है इसलिए अंतिम शेर तक 'कर' का ही रूप बना रहना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ग़ज़लकार ने काफ़िया के साथ-साथ 'कर' रदीफ को दूसरे मिसरे में 'पर' में बदल दिया है।
दुष्यंत कुमार का मतला है -
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे
यहां 'पाने' और 'दिलाने' काफ़िए है; और उनकी रदीफ है- 'आएंगे'। ग़ज़ल के अन्य शेर में 'आएंगे' के स्थान पर 'जाएंगे' रदीफ का इस्तेमाल करना सरासर ग़लत है।
YuuN Besabab Aansoo Aate NahiN
Lag Zaroor Koii Baat Dil Ko Rahii Hai ...
Fareb Kaa ChaDhtaa Bazaar Dekh
Insaaf Se Bastii Khaalii Ho Rahii Hai ...
---Naresh Mehra----
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