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Originally Posted by Hatim Jawed
गज़ल
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एक अंजान सफ़र पर निकला ।
मैं तेरी याद पहन कर निकला ।।
चोट खा खा के दुआएँ लौटीं ।
जिसको पूजा वही पत्थर निकला ।।
पी गया ख़ून पसीना मेरा ।
कितना कमज़र्फ समन्दर निकला ।।
जब भी निकला वो अयादत को मेरी ।
ले के अल्फ़ाज़ के ख़ंजर निकला ।।
मैं तेरी दीद की हसरत ओढ़े ।
जिस्म की क़ैद से बाहर निकला ।।
मेरी मय्यत को लगाया कांधा ।
ग़ैर था आप से बेहतर निकला ।।
-- हातिम जावेद
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Bahut khoob...........................