जैसे नाज़िम कोई हो दंगों का -
12th August 2014, 05:19 PM
Poet
Ajay Pandey
तू मुझे और ज़ख्म क्या देगा
मैं मुकम्मल बना हूँ ज़ख्मों का
अब तो हर शख्स यूँ नज़र आये
जैसे ताजिर मिला हो रिश्तों का
रौशनी बेचने चला मैं भी
शहर सारा जहाँ है अंधों का
मेरे रहबर का है अमल ऐसा
जैसे नाज़िम कोई हो दंगों का