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Originally Posted by brijbhan singh
अब ज़ीस्त से कोई आरज़ू नहीं अब क़ज़ा का इंतज़ार है,
दिल ज़िन्दगी की तल्खियों से थका नहीं बेज़ार है।
और उन्हें मुहब्बत से, हमसे कोई वास्ता नहीं है,
फिर भी नासमझ दिल उन्हीं के लिए तलबगार है।
खुद ने ही तन्हा किया और खुद ही बेवफा हुए,
कोई और नहीं मेरा दिल ही मेरा गुनहगार है।
आसान नहीं है मय से भी ग़म को भुलाना,
अब हमारे बस में नहीं अब दिल-ए-बे-इख़्तियार है।
वो कहती हैं सब कुछ है हमारे दरमियाँ ब्रज,
मगर इसका ये मानी नहीं की जो है वो प्यार है।
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Bahot khoob waaaahhh.......................!!!!