Mushaira held in Chicago in 1992 -
31st October 2006, 10:58 PM
These are excerpts from a mushaira held by the AMU and Osmania Alumni in Chicago at 1992.
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जहाँ गाये थे ख़ुशियों के तराने
मुक़द्दर देखिये रोये वहीं पर
हुए मस्जिद से गुम जूते हमारे
जहाँ से पाये थे, खोये वहीं पर
रैल के डिब्बे में ये क़िस्सा हुआ
एक बच्चा ज़ोर से रोने लगा
माँ ने समझाने की कोशिश की बहोत
उस को बहलाने की कोशिश की बहोत
थक के आख़िर लोरीयाँ गाने लगी
बिजलियाँ कानो पर बरसाने लगी
दस मिनुते तक लोरीयाँ जब वो गा चुकी
तिल-मिला कर बोल उठा एक आदमी
"बहनजी, इतना करम अब कीजीये
आप इस बच्चे को रोने दीजीये!"
जिस दिन हुआ पठान के मुर्ग़े का इन्तक़ाल
दावत की मौलवी की तब आया उसे ख़याल
मुर्दार मुर्ग़ की हुई मुल्लाह को जब ख़बर
सारा बदन सुलग उठा, ग़ालिब हुआ जलाल
कहने लगे खिलाओगे नरम गोश्त?
तुम को नहीं ज़रा भी शरियत का कुछ ख़याल
मुर्दार ग़ोश्त तो शरियत में है हराम
जब तक न ज़िबाह कीजिये, होता नहीं हलाल
फ़तवा जब अपना मौलवी साहब सुना चुके
झुन्झला के ख़न ने किया तब उन से ये सवाल
कैसी है आप की ये शरियत बताईये
बंदे को कर दिया है ख़ुदा से भी बा-कमाल
अल्लाह जिस को मार दे, हो जाये वो हराम
बन्दे के हाथ जो मरे, हो जाये वो हलाल
[मुशायरों में पुलिस वालों की 'ड्युटी' लगती है
और वो घर जाते जाते ख़ुद शायर बन जाते हैं. ईस
मौज़ू पर एक शेर]
रफ़्ता रफ़्ता हर पुलिस वाले को शायर कर दिया
महफ़िल-ए-शेर-ओ-सुख़न में भेज कर सरकार ने
एक क़ैदी सुबह को फाँसी लगा कर मर गया
रात भर ग़ज़लें सुनाईं उस को थानेदार ने
एक शाम किसी बज़्म में जूते जो खो गये,
हम ने कहा बताईये घर कैसे जायेंगे
कहने लगे के शेर सुनाते रहो यूँ ही
गिनते नहीं बनेंगे अभी इतने आयेंगे
बोला दुकान-दार के क्या चाहिये तुम्हें?
जो भी कहोगे मेरी दुकान पर वो पाओगे
मैं ने कहा के कुत्ते के खाने का 'केक' है?
बोला यहीं पे खाओगे याँ लेके जाओगे?
मैं हूँ जिस हाल में ऐ मेरे सनम रहने दे
तेग़ मत दे मेरे हाथों में क़लम रहने दे
मैं तो शायर हूँ मेरा दिल है बहोत ही नाज़ुक
मैं पटाके ही से मर जाऊँगा, बम रहने दे
महबूब वादा कर के भी आया न दोस्तो
क्या क्या किया न हम ने यहाँ उस के प्यार में
मुर्ग़े चुरा के लाये थे जो चार "पोपुलर"
"दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तज़ार में"
Shayri,
Ek Andaz..
Ek Koshish
By Gaurav
Last edited by gjgjgj; 31st October 2006 at 11:01 PM..
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