जब्त करके हंसी को भूल गया, मैं तो उस ज़ख्म ही क -
27th October 2016, 12:34 PM
जब्त करके हंसी को भूल गया,
मैं तो उस ज़ख्म ही को भूल गया,
ज़ात-दर-ज़ात हमसफ़र रह कर,
अजनबी अजनबी को भूल गया,
सुबह तक वजह-ऐ-कानी थी जो बात,
एहद-ऐ-वाबस्तगी गुज़ार के मैं,
वजह-ऐ-वाबस्तगी को भूल गया,
सब दलीले तो मुझ को याद रही,
बहस क्या थी उसी को भूल गया,
क्यों न हो नाज़ इस ज़ेहनात पर,
एक मैं हर किसी को भूल गया,
सब से पुर-अम्न वाकिया है ये,
आदमी आदमी को भूल गया,
कहकहा मारते ही दीवाना,
हर गम-ऐ-ज़िन्दगी को भूल गया,
क्या क़यामत हुयी अगर इक शख्स,
अपनी खुशकिस्मती को भूल गया,
सब बुरे मुझ को याद रहते है,
जो भला था उसी को भूल गया,
,उन से वादा तो कर लिया लेकिन,
अपनी काम-फुरस्ती को भूल गया,
ख्वाब-ही-ख्वाब जिसको चाहा था,
रंग-ही-रंग उसी को भूल गया,
बस्तियों अब तो रास्ता दे दो,
अब तो मैं उस गली को भी भूल गया,
उसने गोया मुझी को याद रखा,
मैं भी गोया उसी की भूल गया,
यानी तुम वो हो वाकेई? हद है,
मैं तो सच मुच सभी को भूल गया,
अब तो हर बात याद रहती है,
ग़ालिबन में किसी को भूल गया,
उस की खुशियों से जलने वाला जॉन,
अपनी इज़-दही को भूल गया
जॉन एलिया साहेब
Mujse ab Shayriya nahi hoti,
mujhe Lafzo ne maar dala hai...nm
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