मैं भी चाहता हूँ की हुस्न पे ग़ज़लें लिखूँ.... -
14th October 2008, 02:44 PM
मैं भी चाहता हूँ की हुस्न पे ग़ज़लें लिखूँ मैं भी चाहता हूँ की इश्क के नगमें गाऊं अपने ख्वाबों में में उतारूँ एक हसीं पैकर सुखन को अपने मरमरी लफ्जों से सजाऊँ ।
लेकिन भूख के मारे, ज़र्द बेबस चेहरों पे निगाह टिकती है तो जोश काफूर हो जाता है हर तरफ हकीकत में क्या तसव्वुर में फकत रोटी का है सवाल उभर कर आता है ।
ख़्याल आता है जेहन में उन दरवाजों का शर्म से जिनमें छिपे हैं जवान बदन जिनके तन को ढके हैं हाथ भर की कतरन जिनके सीने में दफन हैं , अरमान कितने जिनकी डोली नहीं उठी इस खातिर क्योंकि उनके माँ-बाप ने शराफत की कमाई है चूल्हा एक बार ही जला हो घर में लेकिन सिर्फ़ मेहनत की खायी है , मेहनत की खिलाई है ।
नज़र में घुमती है शक्ल उन मासूमों की ज़िन्दगी जिनकी अँधेरा , निगाह समंदर है , वीरान साँसे , पीप से भरी धंसी आँखे फाकों का पेट में चलता हुआ खंज़र है ।
माँ की छाती से चिपकने की उम्र है जिनकी हाथ फैलाये वाही राहों पे नज़र आते हैं । शोभित जिन हाथों में होनी थी कलमें हाथ वही बोझ उठाते नज़र आते हैं ॥
राह में घूमते बेरोजगार नोजवानों को देखता हूँ तो कलेजा मुह चीख उठता है जिन्द्के दम से कल रोशन जहाँ होना था उन्हीं के सामने काला धुआं सा उठता है ।
फ़िर कहो किस तरह हुस्न के नगमें गाऊं फ़िर कहो किस तरह इश्क ग़ज़लें लिखूं फ़िर कहो किस तरह अपने सुखन में मरमरी लफ्जों के वास्ते जगह रखूं ॥
आज संसार में गम एक नहीं हजारों हैं आदमी हर दुःख पे तो आंसू नहीं बहा सकता । लेकिन सच है की भूखे होंठ हँसेंगे सिर्फ़ रोटी से मीठे अल्फाजों से कोई मन बहला नही सकता । ।