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यह कह कर मेरा दुश्मन मुझे हँसते हुए छोड़ गया
....के तेरे अपने ही बहुत हैं तुझे रुलाने के लिए...
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9th February 2016, 04:22 PM
धूप का टुकड़ा
मुझे वह समय याद है—
जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।
सोचती हूँ: सहम और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस छोटे बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया।
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है।
अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा।
-अमृता प्रीतम
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9th February 2016, 04:23 PM
जब इंसान अपने अन्दर से पाता है तो उस को इस कदर प्यार करता है जैसे कोई अपनी महबूबा को प्यार करता है ,पर जब वह अपने भीतर से पाने की जगह दुनिया से पाता है तो उसको ऐसे प्यार करता है जैसे कोई किसी वेश्या को प्यार करता है |
कोई रिश्ता शरीर पर पहने हुए कपड़े की तरह होता है जो कभी भी शरीर से उतारा जा सकता है | पर कोई रिश्ता नसों में चलने वाले लहू की तरह होता है जिसके बिना इंसान जीवित नहीं रह सकता है |
-अमृता
_____________
तू भी कुछ परेशान है
तू भी सोचती होगी
तेरे नाम की शोहरत
तेरे काम क्या आई ,
मैं भी कुछ पशेमाँ हूँ
मैं भी गौर करता हूँ
मेरे काम की अजमत
मेरे काम क्या आई |
-साहिर
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9th February 2016, 04:26 PM
आदि संगीत
मैं थी और शायद तू भी
एक असीम खामोशी थी
जो सूखे पतों कि तरह झड़ती
या यूँ ही किनारों की रेत कि तरह घुलती
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है
मैं ने तुझे एक मोड़ पर आवाज़ दी
और जब तू ने पलट कर आवाज़ दी
तो हवाओं के गले में कुछ थरथराया
मिट्टी के कान कुछ सरसराये
और नदी का पानी कुछ गुनगुनाया
पेड़ की टहनियाँ कुछ कस सी गयीं
पत्तों में एक झंकार उठी
फूलों की कोपल ने आँख झपकाई
और एक चिड़िया के पंख हिले
ये पहला नाद था
जो कानों ने सुना था
सप्त सुरों की संज्ञा तो बहुत बाद की बात है !
-अमृता प्रीतम
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9th February 2016, 04:31 PM
तुम्हारे चेहरे का ध्यान कर के मजहब जैसा सदियों पुराना शब्द भी ताजा लगता है |और तुम्हारे ख़त ? लगता है जहाँ गीता .कुरान .ग्रन्थ और बाइबिल आ कर रुक जाते हैं ,उसके आगे तुम्हारे ख़त चलते हैं .....
अवतार दो तीन दिन मेरे पास गई है ,कल शाम गई |मेरी मेज पर खलील जिब्रान का स्केच देख कर पूछने लगी ,''यह इंदरजीत का स्केच है न ?"" मुझे अच्छा लगा उसने तुम्हारा धोखा भी खाया तो खलील जिब्रान के चेहरे से |नक्शों में फर्क हो सकता है .पर असल बात तो विचारों की होती है |सचमुच तुम्हारे इस नए ख़त को पढ़ कर तुम्हारा और खलील जिब्रान का चेहरा मेरे सामने एक हो गया है |
एक पाकीजगी जो तुममें देखी है वह किताबों में पढ़ी तो जरुर है ,पर किसी परिचित चेहरे पर नही देखी है |
तुम्हारे जाने के बाद एक कविता लिखी है ---रचनामत्क क्रिया .और एक आर्टिकल ---एक कहानी भी !पर यह सब मेरी छोटी छोटी कमाई है ,मेरी जिंदगी की असली कमाई तो मेरा "इमरोज़" है |
अब कब घर आओगे ? मुझे तारीख लिखो ,ताकि मैं उँगलियों पर दिन गिन सकूँ तो मुझे अपनी उंगलियाँ भी अच्छी लगने लगें |
तुम्हारी
पर इस मर्द शब्द के मेरे अर्थ कहीं भी पढ़े ,सुने या पहचाने हुए अर्थ नही थे |अंतर में कहीं जानती अवश्य थी ,पर अपने आपको भी बता सकने का समर्थ मुझ में नहीं थी | केवल एक विश्वास सा था कि देखूंगी तो पहचान लूंगी |
पर मीलों दूर तक कहीं भी कुछ भी नही दिखायी देता था |और इसी प्रकार वर्षों के कोई अड़तालीस मील गुजर गए |
मैंने जब उसको पहली बार देखा ..तो मुझसे भी पहले मेरे मन ने उसको पहचान लिया | उस वक्त मेरी उम्र अड़तालीस वर्ष थी ...
यह कल्पना इतने साल जिन्दा रही और इसके अर्थ भी जिन्दा रहे ..इस पर मैं चकित हो सकती हूँ ,पर हूँ नहीं क्यूंकि जान लिया था कि यह मेरे "मैं" की परिभाषा थी ...थी भी और है भी |
मैं उन वर्षों में नही मिटी,इसलिए वह भी नहीं मिटी ...
यह नही कि कल्पना से शिकवा नही किया ,उस वक़्त लिखी कई कविताएं निरी शिकवा ही हैं जैसे --
लख तेरे अम्बरां बिच्चों ,दस्स की लभ्भा सानूं
इक्को तंद प्यार दी लभ्भी ,ओह वीं तंद इकहरी ..
तेरे लाखों अम्बरों में से बताओ हमें क्या मिला
प्यार का एक ही तार मिला ,वह भी इकहरा ..
पर यह इकहरा तार वर्षों बीत जाने पर भी क्षीण नही हुआ | उसी तरह मुझे अपने में लपेटे हुए मेरी उम्र के साथ चलता रहा ...
कई हादसे हुए पर कल्पना जो मेरे अंगों की तरह मेरे बदन का हिस्सा थी, वह मेरे बदन में निर्लप्त हो कर बैठी रही ...
उसे कई वर्ष समाज ने भी समझाया और कई वर्ष मैंने भी पर उसने पलक नही झपकाई | वह कई वर्षों के पार उस विरानगी की और देखती रही जहाँ कुछ भी नज़र नही आता था ..और जब उसने पलक झपकाई ,तब मेरी उम्र को अडतीलस्वां वर्ष लगा हुआ था ..और तब मैंने जाना की क्यूँ ....उस से अलग ,या आधा ,या लगभग सा कुछ भी नही चाहिए था |
अमृता ने इमरोज़ का इन्तजार किस शिद्दत से किया .वह प्यार जब बरसा तो फ़िर दीन दुनिया की परवाह किए बिना बरसा और खूब बरसा ..
-अमृता प्रीतम
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9th February 2016, 08:01 PM
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Originally Posted by sunita virender
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Waahh!!..............................
अर्ज मेरी एे खुदा क्या सुन सकेगा तू कभी
आसमां को बस इसी इक आस में तकते रहे
madhu..
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17th February 2016, 04:17 PM
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17th February 2016, 04:21 PM
मेरी खामोशी
मेरी खामोशी की गली से
अक्षरों के साए गुजरते रहे
चांद की मटकी से जब-
कतरे से कुछ गिरते रहे
रात की दहलीज़ पर-
तारे दुआ करते रहे…
-अमृता प्रीतम
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17th February 2016, 04:22 PM
मैं सूखी..
ना जाने कब से बैठी रही
समन्दर के इस पार
लहरो ने आते जाते
मेरे पैरो तले की मिट्टी खींची कई बार
मैं अडोल बैठी रही
रेत को मनाती रही
मुझमें मेरा कुछ रहने दे
अधूरा चाँद दर्द देता है
आधी चाँदनी गुम कर देता है
मैं भी गुम हो रही हूँ
आधी अधूरी
रेत ने कहा -डर मत
चाँद घट कर पूरा भी तो होता है
-अमृता प्रीतम
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17th February 2016, 04:23 PM
मुहब्बत
सच्चे दूध जैसी मेरी मुहब्बत
चिट्टे चावल बरसों के
मांजी-धुली दिल की हांडी
दुनिया जैसे गीली लकड़ी
सारी बस्तु धुआँ गई है......
-अमृता प्रीतम
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17th February 2016, 04:25 PM
जो तु मुझे मिला
किस्मत की लकीरो में था कहीं छिपा
अंधेरे में लुक गया था मेरा नसीब
भटकन थी बड़ी जिन्दगी में
ढूॅंढ़ती थी किनारा अब जाकर निकली
है सहर मेरी जिन्दगी की
खता न खाउंगी अब के मैं कहीं
ढूंढ लूंगी अपने हिस्से की जमीं
किस्मत से मिलता है तुझ जैसा
चाहने वाला
-अमृता प्रीतम
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17th February 2016, 04:27 PM
मेरी सारी ज़िन्दगी मुझे ऐसी लगती है जैसे
मैंने तुम्हे एक ख़त लिखा हो।
मेरे दिल की हर धड़कन एक अक्षर है, मेरी हर साँस जैसे कोई मात्रा,
हर दिन जैसे कोई वाक्य और सारी ज़िन्दगी जैसे एक ख़त।
अगर कभी यह ख़त
तुम्हारे पास पहुँच जाता,
मुझे किसी भी भाषा के शब्दों की मोहताजी न होती।
-----------------अमृता प्रीतम
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17th February 2016, 04:28 PM
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17th February 2016, 04:29 PM
जीती,
तुम जिन्दगी से रूठी हुई हो. मेरी भूल की इतनी सजा नहीं, आशी। यह बहुत ज्यादा है। यह दस साल का वनवास। नहीं-नहीं मेरे साथ ऐसे न करो। मुझे आबाद करके वीरान मत करो।
वह मेज, वह दराज, वे रंगों की शीशियां, उसी तरह रोज उस स्पर्श का इंतजार करते हैं, जो उन्हें प्यार करती थी और इनकी चमक बनती थी. वह ब्रश, वे रंग अभी भी उस चेहरे को, उस माथे को तलाश करते हैं, उसका इंतजार करते हैं जिसके माथे का यह सिंगार बनकर ताजा रहते थे, नहीं तो अब तक सूख गए होते. तुम्हारे इंत$जार का पानी डालकर मैं जिन्हें सूखने नहीं दे रहा हूं. पर इनकी ताजगी तुम्हारे साथ से ही है, तुम जानती हो। मैं भी तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं, रंगों में भी जिंदगी में भी.
तुम्हारा
इमरोज
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इमरोज़ का एक पत्र अमृता के नाम
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17th February 2016, 04:36 PM
1963 की बात है। विज्ञान भवन में एक सेमिनार था। उसमें लेखिका ममता कालिया ने उनसे पूछा कि आपकी कहानियों में ये इंदरजीत कौन है? इसपर अमृता जी ने एक दुबले पतले लड़के को उनके आगे खड़ा करते हुए कहा, “इंदरजीत ये है। मेरा इमरोज़।” उनके इस खुले तौर पर इमरोज को मेरा बताने पर वो चकित रह गई। क्*योंकि उस समय इतना खुलापन नहीं था।
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17th February 2016, 04:37 PM
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17th February 2016, 04:38 PM
एक बार मैं यूँ ही उनसे मिलने चला गया. बातों-बातों में मैंने कह दिया कि मैं आज के दिन पैदा हुआ था. गांवों में लोग पैदा तो होते हैं लेकिन उनके जन्मदिन नहीं होते. वो एक मिनट के लिए उठीं, बाहर गईं और फिर आकर वापस बैठ गईं. थोड़ी देर में एक नौकर प्लेट में केक रखकर बाहर चला गया. उन्होंने केक काट कर एक टुकड़ा मुझे दिया और एक ख़ुद लिया. ना उन्होंने हैपी बर्थडे कहा ना ही मैंने केक खाकर शुक्रिया कहा. बस एक-दूसरे को देखते रहे. आँखों से ज़रूर लग रहा था कि हम दोनों खुश हैं.''
-इमरोज़
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17th February 2016, 04:44 PM
मैंने अमृता जी से १९६३ के एक मिलन के दोरान उनसे सुनी Paul Potts की कविता की कुछ पंक्तियाँ साझी की थीं। कुछ पाठकों ने और अंश साझे करने का आग्रह किया ... अत: यहाँ और अंश पेश कर रहा हूँ। अमृता जी को निम्न पंक्तियाँ लगभग ज़बानी याद थीं, और फिर उन्होंने मुझको अपना प्रकाशित वह लेख भी दिया जिसमें उन्होंने Paul Potts के विषय में लिखा था। कुछ पंक्तियाँ अमृता जी ने पंजाबी में अनुवादित सुनाई, जो उनकी आवाज़ में बहुत ही मीठी लगीं ... और फिर बाकी हिन्दी लेख में मुझको पढ़ने को दीं।
पहली तीन पंक्तियाँ अमृता जी से सुनी हुई पंजाबी में हैं , और फिर उनका अनुवाद है।
इक दिन मैं गली विच मौत नूँ वेख्या-सी
ओ बिलकुल इस ज़िन्दगी वगण है
जेड़ी मैं तेरे बगैर जी रयाँ
Hindi …
एक दिन मैंने गली में मौत को देखा था
वह बिलकुल इस ज़िन्दगी जैसी है
जो मैं तुम्हारे बिना जी रहा हूँ
.................................................. .
अगर मुझे सारी ज़िन्दगी का
एक शब्द में वर्णन करना हो
तो मैं कहूँगा, “ एकाकीपन “
और फिर
इस शब्द को दुहरा दूंगा
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17th February 2016, 04:48 PM
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17th February 2016, 04:49 PM
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17th February 2016, 04:52 PM
रात-कुड़ी ने दावत दी
सितारों के चावल फटक कर
यह देग किसने चढ़ा दी
चाँद की सुराही कौन लाया
चाँदनी की शराब पीकर
आकाश की आँखें गहरा गयीं
धरती का दिल धड़क रहा है
सुना है आज टहनियों के घर
फूल मेहमान हुए हैं
आगे क्या लिखा है
आज इन तक़दीरों से
कौन पूछने जायेगा...
उम्र के काग़ज़ पर —
तेरे इश्क़ ने अँगूठा लगाया,
हिसाब कौन चुकायेगा !
क़िस्मत ने एक नग़मा लिखा है
कहते हैं कोई आज रात
वही नग़मा गायेगा
कल्प-वृक्ष की छाँव में बैठकर
कामधेनु के छलके दूध से
किसने आज तक दोहनी भरी !
हवा की आहें कौन सुने,
चलूँ, आज मुझे
तक़दीर बुलाने आई है...
-अमृता प्रीतम
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17th February 2016, 05:02 PM
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17th February 2016, 05:21 PM
jo achche lagte hain vo khayalon me rahte hain...tasweeron me nahi...waaah...
Ye baat ek pyaar bhara dil bakhoobi samajh sakta hai...
अर्ज मेरी एे खुदा क्या सुन सकेगा तू कभी
आसमां को बस इसी इक आस में तकते रहे
madhu..
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18th February 2016, 02:00 PM
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Originally Posted by Madhu 14
jo achche lagte hain vo khayalon me rahte hain...tasweeron me nahi...waaah...
Ye baat ek pyaar bhara dil bakhoobi samajh sakta hai...
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bilkul sahi kaha tumne Madhu...pyar karne wale hi es baat ko gehrai tak samaj sakte hai.
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18th February 2016, 02:01 PM
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18th February 2016, 02:06 PM
उठो ! बहुत दूर जाना है .....
रात आधी बीती होगी....
थकी हारी..
नींद को मनाती आँखे ....
अचानक व्याकुल हो उठीं...
कहीं से आवाज़ आई --
अरे ,अभी खटिया पर पड़ी हो !
उठो ! बहुत दूर जाना है
आकाश गंगा को तैर कर जाना है "
मैं हैरान हो कर बोली --
मैं तैरना नहीं जानती
पर ले चलो ,
तो आकाश गंगा में डूबना चाहूंगी |"
एक खामोशी --हलकी हँसी
नहीं डूबना नहीं ,तैरना है ...
मैं हूँ न ,....
और फ़िर जहाँ तक कान पहुँचते थे
एक बांसुरी की आवाज़ आती रही ......
अमृता प्रीतम का जीवन
और लेखन दोनों परम्परागत
लीक से हट कर है ...
दोनों में परम्परा को नकार कर
सच को पाने की तड़प है ......
प्यास है...
शायद इस ही लिए
दोनों ही जोखिम से भरपूर हैं
और समाज के आंखों की किरकिरी बन गए ...
अमृता जी की सर्जनात्मक प्रतिभा
किसी एक विधा में बाँध कर नही रह गई ..
उसका विकास हर तरफ़ से हुआ
उन्हें वैसे....
मूलतःकवयित्री ही माना जाता है
पर कोई विधा नहीं है
जिस में उनकी सफल लिखी हुई
कृतियाँ न मिले.....
अब चाहे वह कविता हो..
चाहे उपन्यास....कहानी....
या लेख ..
सब में नारी की व्यथा खूब
अच्छे से उभर कर आई है ...
पर इस सबके बावजूद
अमृता जी के सारे साहित्य का मूल स्वर जीवन ही है ...
वह कहीं भी ज़िन्दगी से
भागती हुई नहीं दिखी....
नही कहीं विरक्त दिखी ..
.उनके लेखन में उनके व्यक्तित्व में जीवन की....
हर बाधा से.....हर विपदा....
से जूझने का साहस है .....
वो भी किसी जोखिम और
किसी भी परिणाम की चिंता
किए बिना ...
जीवन को भरपूर जी लेने की तड़प है ....
जीवन में भी
और उनके लिखे साहित्य में भी....उन्होंने जैसा लिखा....
वैसा ही जिया...
उनका जीवन दर्शन अनूठा पर सच्चा प्रतीत होता है ....
जैसे हमारे ..तुम्हारे दिल ने
उनसे बाँट लिए हों ...
अपने अपने दु:ख सुख ....
...इस लिए एक बात और जो उनके लेखन में दिखायी
देती है वह यह है कि अपने जीवन और जगत...
इस संसार के प्रति बेपनाह
आक्रोश होते हुए भी
उनका साहित्य सम्पूर्ण मानवता ,
इंसानियत के लिए प्यार ही प्यार समेटे हुए हैं .....
अमृता ने जो समय समय पर
लेख लिखे वे पहले
"नागमणि" में छपते रहे....
फ़िर यह एक पुस्तक के रूप में छप कर हम से रूबरू हुई
उसका नाम है सफरनामा....
इस पुस्तक को अमृता ने
किताबों ....मुलाकातों ....
और
विचारों की सड़क का सफरनामा कहा .......
वैसे तो पूरी किताब ही नायाब है
फिर भी उसकी कुछ चुनी हुई
पंक्तियाँ यहाँ पढ़े .......
यह धरती बहुत विशाल है.....
यहाँ हर कौम के......हर नस्ल के..हर मजहब के और हर विश्वास के लोग अमन चैन से बस सकते हैं. ..
यहाँ किसी को हथियार बनाने की भी आवश्यकता नहीं होनी
चाहिए थी और यह धरती बड़ी उपजाऊ है यहाँ किसी मनुष्य को भूखे सोने की नौबत नही आनी चाहिए .
जिंदगी बहते पानी का नाम है
इसका कोई भी पल जोहड़ की
तरह ठहरा हुआ सड़ना नही चाहिएऔर
मोहब्बत महज एक रोशनी का
नाम है ......
ईश्वर के नाम जैसी.... बेबाकी का नाम है ...
इसे छातियों की गुफाओं में
पड़कर दिन बिताने की
आवश्यकता नहीं है ..और
दोस्ती मनुष्य के गुणों में
एक कुदरती गुण है बड़े
खूबसूरत अंगों वाला ,
इसे अपाहिज कर के चौराहे पर
भिखमंगों की तरह खड़ा करने की आवश्यकता नहीं है ......
और
मनुष्य एक गौरव से चमकते.. .
ऊँचे सिर वाले जीव का नाम है ....
इस माथे को कभी मजहब की दहलीज पर कभी ....
मज़बूरी की दहलीज पर झुकाने की जरुरत नही है.......
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यह कह कर मेरा दुश्मन मुझे हँसते हुए छोड़ गया
....के तेरे अपने ही बहुत हैं तुझे रुलाने के लिए...
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18th February 2016, 02:07 PM
कोई अपने हाथ में पत्थर उठाता है
तो पहला ज़ख्म इंसान को नहीं,
इंसानियत को लगता है।
और सड़क पर जो पहली लाश गिरती है,
वह किसी इंसान की नहीं होती, इंसानियत की होती है…
-अमृता प्रीतम
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18th February 2016, 02:07 PM
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18th February 2016, 02:09 PM
इमरोज़ को लिखे अमृता का एक ख़त से कुछ पंक्तियाँ ..
..................
'राही, तुम मुझे संध्या बेला मे क्यों मिले?
.
जिन्दगी का सफ़र ख़त्म होने वाला है.
.
तुम्हे मिलना था तो जिन्दगी की दोपहर के समय मिलते,
उस दोपहर का सेका तो देख लेते'.
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18th February 2016, 02:10 PM
"गुलज़ार साहब अमृता जी के बारे मैं कहते हैं...."
"एक बुढ़िया चाँद मैं चरखे पे बैठी बादल काटा करती है,
और एक गुड़िया ज़मीन पे बेठी सपने काटा करती थी,
नो साल की उमर से ही..या शायद उससे भी पहले,
छोटे - छोटे रुई के गाले बाट के पूड़ियाँ बना के
अपनी पच्छी (टोकरी) मैं जमा कर लेती थी
और फिर उनसे नज़्मो का सूत काटा करती थी
उसकी पच्छी मैं और भी बहुत कुछ था,
(नॉवेल ,अफ़साने ,सफरनामे और नज़्में)
धुप से रंग निचोड़ लिया करती थी
और मौसमो से कहती थी की उसका दुपट्टा तो रंग दें,
गुलाल की तरह सपने मुठ्ठी मैं भर के उड़ाया करती थी,
वो गुड़िया भी अमृता ही थी
और चाँद में बेठी बुढ़िया भी वही है
कान लगा के सुनो उसके चरखे की घूं-घूं यहाँ तक सुनाई देती है।
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18th February 2016, 02:11 PM
प्रेम का मतलब है
दो लोगों के बीच
असंभव घट जाना
-अमृता प्रीतम
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18th February 2016, 02:13 PM
कोई कोई दिल
न जाने मुहब्बत की
कैसी भूख लेकर
इस दुनिया में आता है
-अमृता प्रीतम
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26th February 2016, 03:43 PM
कल शीशे की सुराही में
मैने ख्यालो की शराब भरी थी
ख्याल बड़े सुर्ख थे
दोस्तों ने जाम पीये थे
और उन लफ्ज़ो के टोस्ट दिये थे
जो छाती मे नही उगते है
वे कौन-से पेड़ों पै उगते है
और होंटों के गमलो में
किस तरह आते है,
यह सोचने का वक़्त न था
या इस तरह कहूँ की
सोचने में ख़ौफ़ लगता था
यह लफ्ज़ो का जशन था
भुलावों की वर्षगांठ
मै थी,रात थी,ख्यालो की शराब थी
और बहुत दोस्त
दोस्त जो कुछ बुलाने पर आये थे,
कुछ बिन बुलाये।
सिर्फ एक कोई 'वह्' था
जो बहुत बार बुलाने पर भी
नही आया था
-अमृता प्रीतम
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26th February 2016, 03:44 PM
आज पवन मेरे शहर की बह रही
दिल की हर चिनगारी सुलगा रही है
तेरा शहर शायद छू के आई है
होंठो के हर साँस पर बेचैनी छाई है
मोहब्बत जिस राह से गुजर कर आई है
उसी राह से शायद यह भी आई है
- अमृता प्रीतम
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26th February 2016, 03:45 PM
पुरूष का पाप पानी में पत्थर की तरह डूब जाता है
और...
औरत का पाप पानी में फूल की तरह तैरता रहता है
-अमृता प्रीतम
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26th February 2016, 03:46 PM
दुआ की छाँव मे बैठकर सिर्फ़ अल्लाह से कुछ मांगना ही जरूरी नहीं,
बल्कि इस छाँव मे छिपे हुए खूबसूरत सफ़र की आहट सुनना भी है___!
-अमृता प्रीतम
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