Qaza ka intzaar -
1st July 2018, 08:29 AM
अब ज़ीस्त से कोई आरज़ू नहीं अब क़ज़ा का इंतज़ार है,
दिल ज़िन्दगी की तल्खियों से थका नहीं बेज़ार है।
और उन्हें मुहब्बत से, हमसे कोई वास्ता नहीं है,
फिर भी नासमझ दिल उन्हीं के लिए तलबगार है।
खुद ने ही तन्हा किया और खुद ही बेवफा हुए,
कोई और नहीं मेरा दिल ही मेरा गुनहगार है।
आसान नहीं है मय से भी ग़म को भुलाना,
अब हमारे बस में नहीं अब दिल-ए-बे-इख़्तियार है।
वो कहती हैं सब कुछ है हमारे दरमियाँ ब्रज,
मगर इसका ये मानी नहीं की जो है वो प्यार है।
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