अपनी अपनी गीता -
12th August 2010, 11:32 AM
अपनी अपनी गीता
हम तुम दोनों विद्रोही हैं साथी
बहुत जूझे हैं इस आंतरिक रण-क्षेत्र में
मैं नहीं जानता कि तुम्हें अहसास है कि नहीं
मगर मैंने स्वैयं को कई बार
प्रश्नों के आगे सिर झुकाये पाया
मेरे उत्तर निरुत्तर हो गये वहाँ
तथा कई बार
बहुत अनलढ़ी लढ़ायों के भी
मेरे अपरिपक्व उन्माद ने
विजय -घोष कर डाले
और उसी उन्माद ने बहुत बार
रोंदी विचार -राहें कईं
अपनी इस मदमस्त आकुलता मैं
फिर पता भी नहीं
कि कब सोम्य मुस्कान
वीभत्स हो गयी
बहुत बार ऐसा अपने साथ
आत्मिक रण -क्षेत्र मैं
क्यूंकि शायद हम
क्षमा शब्द से अपरिचित थे
व् अपनी संवेदनाओं पर शर्मिंदा थे
और उन्हें अपने घर छुपा कर
युद्ध -स्थल आये थे
इसलिये वह विद्रोह
कब कब बन जाता था मात्र उपद्रव
हम न जान सके
परन्तु यह बहुत पहले की बात है
तुम्हारा तो पता नहीं
मगर मैं अपने सारे क्षत -विक्षत उत्तर
अपने साथ लाया था
और सच मानो
उनके रक्त -भरे चेहरों मैं
मैंनें एक जीवंत उत्तर पाया
और तभी प्रश्नों से युद्धकी व्यर्थता
व् उत्तरों की आकांक्षा से बाहर मैं था
सत्य शब्द और उसकी तमाम वैचारिक संज्ञाओं से परे
सत्य की जीवंता में -
उस दिन से विद्रोह मेरा संवेदनशील है ,साथी
अधिकार व् उत्तरदायित्वके प्रति समान सजग
तुम्हारे विद्रोह का क्या हुआ मैं नहीं जानता
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