जाने कब ज़िंदगी की है। एक ग़ज़ल -
15th June 2018, 01:07 PM
आदाब दोस्तो एक अरसे के बाद हाज़र हुआ हुँ अपकी राय इऩतज़ार रहेगा
हरदेव अश्क
जाने कब ज़िंदगी की
जाने कब ज़िंदगी की शाम हो जाए।
दिल कहे दोस्तो! दुआ-सलाम हो जाए।
होंठो पे हो हसी और दिल में करार,
लबरेज़ प्यार से भरा जाम हो जाए।
ढूंढें दाना-दाना परिंदे बच्चों की खातिर
उन के दुलार का भी इहतराम हो जाए ।
रंगो.नस्ल ना पूछी कभी तामीरे.खून की,
इनसां का खून एक इल्हाम हो जाए।
वो संत बन के लूटें मासूमी बच्चों की,
ऐसी दरिंदगी का कत्ल.ए.आम हो जाए।
सौगात दी जिसने हमें अनमोल ज़िंदगी,
उसके मुरीदों में ‘अश्क’ नाम हो जाए।
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