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Originally Posted by aru
उसे जाना था
ये वो भी जानती थी
और मैं भी जानता था
मगर फिर भी साथ जीने मरने की
कसम खाते रहे
उतरते रहे यूँ इश्क़ के समंदर में
जैसे लहरों में ही खो जाना है
मगर चाँद भी कभी रुका है
चलते चलते वो भी उस मोड़ पे आ गया
जब हमें किनारे आ के खो जाना था
न वो रुकी
न मैं रोक पाया
बहुत दबाया वक़्त को मुठ्ठी में
पर वो रेत सा फिसलता ही रहा
आँखें तो रात भर जागी
पर चाँद ने साथ नहीं दिया
और फिर वक़्त ने अंगड़ाई ली
आँख खुली तो
एक खाली सा आसमान था
एक बुझा हुआ सा सूरज था
एक तन्हां सा मैं था
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Wah wah arvind Bhai kya baat hai bhut khub, bhut hi gehrii baat. Daad hazir hai janaab, likhte rahiye.