Zafar Iqbal's Creations - ज़फ़र इक़बाल के कुछ क़लाम -
10th November 2006, 03:32 PM
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देखना है वो मुझ पर मेहरबान कितना है
असलियत कहाँ तक है और गुमान कितना है
[असलियत = reality; गुमान = Doubt]
क्या पनाह देती है और ये ज़मीं मुझ को
और अभी मेरे सर पर आसमान कितना है
[पनाह = shelter]
कुछ ख़बर नहीं आती किस रविश पे है तूफ़ाँ
और कटा फटा बाक़ी बादबान कितना है
[बादबान = sail of a boat]
तोड़ फोड़ करती हैं रोज़ ख़्वाहिशें दिल में
तंग इन मकानों से ये मकान कितना है
क्या उठाये फिरता है बार-ए-आशिक़ी सर पर
और देखने में वो धान-पान कितना है
[बार = weight]
हर्फ़-ए-आरज़ू सुन कर जांचने लगा यानी
इस में बात कितनी है और ब्यान कितना है
फिर उदास कर देगी सर्सरी झलक उस की
भूल कर ये दिल उस को शादमान कितना है
[शादमान = happy]
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नहीं कि मिलने मिलाने का सिलसिला रखना
किसी भी सतह पे कोई तो राब्ता रखना
[सतह=level; राब्ता=relationship]
मदद की तुम से तवक़्क़ो तो ख़ैर क्या होगी
ग़रीब-ए-शहर-ए-सितम हूँ मेरा पता रखना
[मदद=help; तवक़्क़ो=expectation]
मरेंगे और हमारे सिवा भी तुम पे बहुत
ये जुर्म है तो फिर इस जुर्म की सज़ा रखना
नये सफ़र पे रवाना हुआ है अज़-सर-ए-नौ
जब आऊँगा तो मेरा नाम भी नया रखना
[अज़-सर-ए-नौ=A fresh start]
हिसार-ए-शौक़ उठाना 'ज़फ़र' ज़रूर मगर
किसी तरफ़ से निकलने का रास्ता रखना
[हिसार-ए-शौक़=bonds of desire]
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Shayri,
Ek Andaz..
Ek Koshish
By Gaurav
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